आत्म दीप की थाह
///आत्म दीप की थाह///एक
आत्म दीप की थाह भरी यह,
मृदु मंजुल मंजुल मुस्कानें।
सदा उठती हैं शून्य गगन में,
प्रियतम का प्रिय अन्तर पाने।।१।।
प्रिय के पदचापों का अनुशीलन,
लेकर के मैं बढ़ता जाता।
धरा गगन नव पार क्षितिज के,
उड़ता मन ले ले अनजाने।।२।।
मधु स्रोतों की धार बनी,
मृदु अंचल की आधार बनी।
बुनती नित विश्व सुमन के,
हितबंधों की बहु चाह बनी।।३।।
अनंग आसव के उर प्याले,
मधु के सुखे अन्तर विहंग।
प्राण पखेरू लेकर बन बन,
उड़ता मन यह धृत प्रतिसंग।।४।।
बहती वाती उर रोम हिलोर,
देती है मधु आसव घोल।
प्रेम लोल किलोलें निर्जन ,
देती है मधु आंचल खोल।।५।।
दूर क्षितिज सूने पथ पर,
सूनी अनसुनी ये रातें।
प्रातः उठती प्रेरा बनकर,
प्रिय वेदना की वे बातें।।६।।
शून्य गगन में मंडराता है,
प्याला यह सूखा जाता है।
पाता है अधीर अंचल को,
दृग मन यह रुखा जाता है।।७।।
धुलती यह अनदेखी रातें,
देती मधु स्वपनों में बोर।
भोर हुआ फिर लेकर सादर,
मृदु मधुमय भाव हिलोर।।८।।
उनकी सूनी निश्वासों में,
उठते मधु मानस के फूल।
दूर क्षितिज से दूर कहीं पर,
उड़ता यह मन पीत दुकूल।।९।।
क्रमशः