अवशेष

अवशेष
किसी पीपल की छाँव तले,
मैंने कल कुछ पत्ते गिने थे,
हर पत्ते पर अंकित थे,
कुछ भूले-बिसरे सपने।
एक था माँ के आँचल जैसा,
जो बचपन की धूप छाँव था,
एक में कुछ शब्द लिखे थे,
जो शायद तेरा नाम था।
गोधूलि बेला में चिड़ियाँ लौटीं,
पर कोई घर न लौटा मेरा,
वह आँगन, वो दीवारें सूनी,
जैसे ठहरा हो अतीत घनेरा।
कोई बुलाए तो भी न जाऊँ,
अब उन गलियों में लौट न पाऊँ,
जहाँ धूप छाँव का खेल हुआ करता था,
अब वहाँ अंधेरों की चौपालें हैं।
साँझ ढली, मैं उठकर चल दिया,
पर वो पीपल अब भी खड़ा था,
हवा चली, कुछ पत्ते गिरे,
और मैं अपने अधूरे सपनों संग बढ़ चला।
— स्मृतियों के साए में एक राहगीर