दग्ध नयन
///दग्ध नयन///
दग्ध नयनों में कहां अब,
निमंत्रण की मौन आशा।
दूर हैं ये अब रम्य नभ के,
काव्य कांति कारक स्त्रोत।।
जगत उद्यान की विटप बेलियां,
चढ़ा जिसने कभी सजाए थाल।
आज वह ही प्रार्थ बनकर यहां,
शून्य नभ का है जाल बुन रहा।।
आर्त की अंतर आह विभासा,
मृत्युंजयी आवरण युक्त थी कभी।
अनजान अग्नि ने प्रज्वलित हो,
क्यों हविष्य सारे कर दिए भस्म।।
संसार सागर सा व्यथित,
नवप्राण रम्य विश्व निकर।
व्यथा व्यापक मोह जग का
व्यापित होता रहा अंबर में।।
आत्म विज्ञा की तपन,
इन दग्ध नयनो ने सही।
श्रृंगार माला की कहां,
विधा बिम्बित होगी यहां।।
ले रमन युग का संदेश,
साद्य प्रेरक विश्वास का।
त्वरित नौका वणित भूपर,
डगमगाती रही सदा यहां।।
कृत कार्य का संकल्प लेती,
विजन दृष्टि की थाह ले।
कौन सु-माली ने यहां पर,
कभी बिखराए कोई फूल थे।।
सौरभ गगन में पंख लेकर,
उड़ गया कभी का आह दे।
विश्वास पंखों से झरित,
एक वाती का झोंका यहां।।
प्रेम पिपाशा का कुशल संदेश,
देते कभी थे यह नयन भी।
श्रृंगार मालाएं वलित वलित हो,
गिर जाती थी इस आंचल में।।
किंतु कालबोध निर्बोध था,
व्यथित धरा थी निर्मोह की।
तड़ित झंझाओं ने उन्हें अब,
दग्ध नयनों की संज्ञा दिया।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)