कभी जो अभ्र जम जाए
कभी जो अभ्र जम जाए तो शीशा तोड़ मत देना,
बिखर जाए अगर सपने, सजाना छोड़ मत देना।
उठाए जा सितम दिल पे अपने भी पराए भी,
किसी भी मोड़ पर ये दिल के रिश्ते तोड़ मत देना।
अगर तकलीफ ना हो तो भला फिर जिंदगी कैसी?
देखकर सामने गर्दिश निगाहें मोड़ मत लेना।
मुसाफिर हूं मैं चलता ही रहूंगा आख़री दम तक,
यही सोच पग बढाना इरादे तोड़ मत देना।
▲ शुभम आनंद मनमीत