चलो चलते हैं धरा पर…

चलो चलते हैं धरा पर…
अथश्री….. श्री गणेशाय नमः…
चलो चलते हैं धरा पर, वहाँ मनुज ने हमें बुलाया है,
मिलन है दो दिलों का जो,मंडप भी भव्य सजाया है।
देखो ना ये न्योता हमारा,प्रथम पृष्ठ पर ही चित्र मेरा,
मंगलमय हो सब कुछ वहां पर,चल रहा है गीत मेरा।
चलो ना संग रिद्धि-सिद्धि,शुभ-लाभ को भी साथ लेना,
खाएंगे मोदक और लड्डू,मूषक कहां तू,अतिशीघ्र आना।
कहती है तब रिद्धि-सिद्धि, भव्य मंडप नाम का है,
सब वहां है रावण के वंशज,कोई भी न राम का है।
जाओगे तुम जब वहां पर,होगा सब उल्टा वहां पर,
मन अभी न निर्मल हुआ है,बहती है गंगा जहां पर।
मधुर मिष्ठान्नों के संगही रक्खा अस्थियों का पात्र भी है,
गर्म लहू सा रस मिलाकर पकाया अजा का गात्र भी है।
देखो ना हावभाव वहां पर,नज़रों से सब क्या ढूंढते है,
देहमात्र अंग प्रदर्शनों को ही,सब चक्षुओं से घूरते है।
मरघटों के भाँति ही तो पसरा,वहां पर आकाश तत्त्व है,
पुष्पवृष्टि होगी भी कैसे, देख रहे हैं जो कैलाश सत्त्व है।
मंत्रोच्चारण हो रहा बस ,गौण सब मांगलिक ऋचा है,
सजा बस देवों का आसन,नव प्रथा में लिपटी मृषा है।
कलियुगी शादी है ये, टिकता नहीं ज्यादा दिनों तक,
आशीष दोगे जन्मांतरों का,गाली सुनोगे तुम वर्षों तक।
सोच लो पतिदेव फिर से, मेरा मन तो खिन्न दिखता,
शुभ-लाभ भी राजी नहीं है,मूषक भी उद्विग्न दिखता।
इतिश्री….
मौलिक और स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०९/०२/२०२५
माघ ,शुक्ल पक्ष, द्वादशी तिथि , रविवार
विक्रम संवत २०८१
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