पत्रिका समीक्षा

पत्रिका समीक्षा
पत्रिका का नाम: इंडियन थिऑसफिस्ट
अंक: दिसंबर 2024, खंड 122, अंक 12
प्रकाशक: भारतीय अनुभाग, थियोसोफिकल सोसायटी, कमच्छा, वाराणसी 221010
संपादक: प्रदीप एच गोहिल
————————————
समीक्षक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451
——————————
इंडियन थिऑसफिस्ट थियोसोफिकल सोसाइटी की हिंदी भाषा में प्रकाशित होने वाली पत्रिका है। इसमें थियोस्फी की विचारधारा के अनुरूप गंभीर वैचारिक लेख प्रकाशित होते हैं। प्रस्तुत अंक में भी यही पद्धति अपनाई गई है।
सचिव, दिल्ली फेडरेशन मानसी भगत का एक लेख ‘पतंजलि योग सूत्र समाधि के नौ व्यवधान’ शीर्षक से इस बार के अंक का प्रमुख आकर्षण है। प्रायः ध्यान और समाधि की साधना करने वाले लोग यह पाते हैं कि उनकी प्रगति या तो हो नहीं रही है अथवा जैसी होनी चाहिए, वैसी नहीं हो पा रही है।
मानसी भगत ने पतंजलि योग सूत्र के आधार पर जिन व्यवधानों की चर्चा की है, उनमें पहला व्यवधान बीमारी का है। दूसरा व्यवधान शरीर की शिथिलता का है। तीसरा व्यवधान लापरवाही का है। चौथा व्यवधान शंका अर्थात दृढ़ विश्वास में कमी होती है। पांचवा व्यवधान आलसीपन है। छठा सांसारिकता के प्रति आकर्षण है। सातवां व्यवधान भ्रांति-दर्शन अर्थात अपने को श्रेष्ठ समझना है। आठवां व्यवधान अनिस्थित्व अर्थात उच्च स्थिति को प्राप्त न होना है। नवॉं व्यवधान अस्थिरता है। इन सब व्यवधानों से ऊपर उठकर ही व्यक्ति निरंतर प्रयास करते हुए समाधि के मार्ग पर बढ़ सकता है। लेखक ने यूनिटी ऑफ ऑल की चर्चा की है तथा समाधि प्राप्त करने के लिए सब प्रकार की घृणा से मुक्ति पाना आवश्यक बताया है। लेख साधकों के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध होगा।
संपादकीय ‘आगे का एक कदम’ शीर्षक में प्रदीप एच गोहिल ने थियोसोफिकल सोसायटी के एक उद्देश्य तुलनात्मक धर्म , दर्शन और विज्ञान का अध्ययन को अपने लेख का विषय बनाया है। आपने क्वांटम फिजिक्स तथा वेद आदि पुरातन आध्यात्मिक परंपराओं और ज्ञान की समानताओं की चर्चा की है तथा कहा है कि जिस तरह अध्यात्म में ईश्वर की अवधारणा सर्वशक्तिमान एक ऐसे स्रोत के रूप में है जिसमें सारी वस्तुएं अस्तित्व में आती हैं और वापस उसी में चली जाती हैं; ठीक उसी तरह क्वांटम फिजिक्स का ‘यूनिफाइड फील्ड’ भी है जिसकी अवधारणा यह है कि इसी से सारी शक्तियॉं उत्पन्न होती हैं। लेखक द्वारा धर्म और विज्ञान का यह तुलनात्मक अध्ययन काफी दिलचस्प है।
आर.बी. वस्ट्राड का लेख ‘सनातन ज्ञान और चेतना का विकास’ इस बात से सहमत नहीं है कि आधुनिक वैज्ञानिक युग ने पुरानी सारी बातों को नकारने का फैशन विकसित कर लिया है। लेखक ने सनातन ज्ञान की कॉसमोसेंट्रिक अवधारणा को आत्मज्ञान और जागरूकता पैदा करने वाली प्रवृत्ति बताया है तथा कहा है कि हम पूरे यूनिवर्स का अभिन्न अंग है; यह महसूस करना बहुत जरूरी है।
एक लेख देबासीस पटनायक का इस शीर्षक से है कि क्या पूर्णत्व के मार्ग पर पहुंचने या उसमें चलने के लिए शिक्षक आवश्यक है ? लेखक ने महान ऋषि दत्तात्रेय के हवाले से चौबीस प्रकार के शिक्षकों की व्यवस्था प्रकृति से बताई है। लेखक ने अपने लेख में अनेक प्रश्न पाठकों के पास आत्म मंथन के लिए छोड़े हैं। उदाहरणार्थ, कोई इज्म या वाद रचनात्मक का सृजन करता है या उसे दूषित करता है ?
लेखक ने इन शब्दों के साथ पाठकों के सम्मुख प्रश्न रखा है कि अगर हम मनुष्य को एक ऊर्जाजनक इकाई के रूप में देखें, जो सदा अंदर से परिवर्तन के लिए तैयार है और जिसमें कोई प्रतीक, इज्म या पहचान आवश्यक न हो तो कैसा रहेगा ?
पत्रिका के अंत में थियोसोफिकल सोसायटी की विभिन्न गतिविधियों का लेखा-जोखा भी है। एक अच्छी घटना का उल्लेख यह है कि जब बनारस में थियोसोफि का अध्ययन शिविर चल रहा था, इसी बीच वसंत कन्या महाविद्यालय की एक छात्रा कुमारी नीलम कुमारी बीए द्वितीय वर्ष की छात्रा ने एक वृद्ध को अचानक फर्श पर गिरते हुए पाया। उन्होंने तत्काल कार्डियो पल्मोनरी रेसिटेशन दिया। यह एनसीसी की कप्तान के रूप में उन्होंने सीखा था। कुमारी नीलम कुमारी का साथ उनकी सहयोगी एमए फाइनल की छात्रा कुमारी सलोनी ने भी दिया। इस प्रकार वृद्ध के प्राणों की रक्षा हो सकी। ऐसे प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत करने से थियोस्फी की मूल भावना प्रयोगात्मक रूप से दृढ़ होती है। पत्रिका का कवर सदैव की भॉंति सुंदर है। छत्तीस पृष्ठ की पत्रिका के लिए प्रकाशक-संपादक बधाई के पात्र हैं।