मजदूर एक मां

सिक रही है धूप में जिस्म जला रही है,
जिंदगी की आग में खुद को तपा रही है।
मजबूर है आज कितनी मजदूर एक मां,
दूध नही वो अपना पसीना पीला रही है।
बांध कर आंचल में मुझको,अपनी पीठ पे,
सिर पर भारी ईंटो का बोझा उठा रही है।
कही कमी न पड़ जाए,कल रोटी की मुझे,
खुद पेट अपना काट कर पैसे कमा रही है।
तस्सली देती हुई मन को आज तंगहाल में,
देख देख कर मुझे अब भी मुस्कुरा रही है।
उसे अपने आज की कोई फिकर ही नही,
वो तो अपनी ममता का बस फर्ज निभा रही है।
@साहित्य गौरव