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6 Jan 2025 · 1 min read

सोचो मन के उस हद तक

सोचो मन के उस हद तक

सोचो मन के, उस हद तक
जिसके पार, कुछ भी न हो..
तृष्णा-वितृष्णा का भेद मिटे
और जीवनकथा, व्यथा ना हो..

तर्क-वितर्क से रहित,हो जीवन
द्वंद्व कभी भी, ना मन में हो..
पाप कटे सारे इस जीवन
अगला फिर, कोई जन्म ना हो..

सोचो मन के उस हद तक…

शाश्वत जीवन में उपजा मोह
और चिंता से, ना घबराया तन हो..
मान-अपमान के प्रबल जाल में
तनिक नहीं सकुचाया मन हो..

सोचो मन के उस हद तक…

जीवन समर, पल-पल मुखरित
ना दर्प कंदर्प से,अभिषिक्त हृदय हो..
संध्या प्रहर जब गाऊँ यमन राग तो
बिना हेतुक, मन मयूर प्रसन्न हो..

सोचो मन के उस हद तक…

मोक्ष की चाहत भी है बंधन
उससे भी ऊपर, उठो प्यारे..
मर्त्य-अमर्त्य का प्रश्न छोड़ो उनपर
जिसने है जग रचा सारे…

सोचो मन के उस हद तक..

मौलिक और स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ० ६/०१/२०२५
पौष, शुक्ल पक्ष,सप्तमी ,सोमवार
विक्रम संवत २०८१
मोबाइल न. – 8757227201
ईमेल पता :- mk65ktr@gmail.com

3 Likes · 2 Comments · 136 Views
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