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23 Jan 2024 · 1 min read

सच्ची कविता

जब-जब मौन मुखर हो जाता
अधरों पर छा जाता बंद।
उद्वेलित हो उठते जब प्राण
कलम से बहे तब-तब छंद।
नयनों से जब सावन बरसे
ह्रदय नेह बूंद को तरसे।
करुणा क्षत पर लेप लगाए
व्यथा इकतारे पे गाए।
तब उस गाने में झरता है
उर में छिपा हुआ हर द्वन्द्व।
जब-जब अनगढ़ मन बौराता
स्वपन के प्रासाद सजाता।
कल्पना की गली में खोकर
अपने आप कवि बन जाता।
तब-तब अंकित हो जाते हैं
नव उपमा और नए छंद।
जब-जब होता हृदय अकेला
लगे हैं भावों का मेला।
करते हैं शब्द ऑंख-मिचोली
प्रतिबंधों की कर अवहेला।
हर बंधन से हर बाधा से
तब होती कविता स्वच्छंद।
वर्तमान के कंटकित पथ पर
दीपित ज्योति सी तिल-तिल जल।
रोम-रोम में सहज समाकर
जग का पीती स्वयं गरल।
उस कविता की पूजा-अर्चा
करती जग से हो निर्द्वन्द्व।

—प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव,
अलवर(राजस्थान)

Language: Hindi
3 Likes · 440 Views
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