मैं बंजारा बन जाऊं

कभी कभी लगता हैं मुझको,मैं बंजारा बन जांऊ l
फिर दुनिया के राग दोष से, मैं भी मुक्ति पा जाऊं ll
ये गोरे काले का रंगभेद, ये ऊंच नीच ये जात पात l
ये गहरी खाई चल रही, कब से दुनिया के साथ साथ ll
शहर में फिर भी चलता हैं, कहीं किधर भी डोलो तुम l
गांव गली चौपाल में अब भी, वही पुरानी रून झुन झुन ll
जीते जी न साथ छोड़ती, मरने के भी बाद नहीं l
संविधान से चलता भारत, फिर क्यों ये वहिष्कार नहीं ll
कभी कभी लगता हैं मुझको,मैं बंजारा बन जांऊ l
फिर दुनिया के राग दोष से, मैं भी मुक्ति पा जाऊं ll
कहीं मटके की जंग छिड़ी, कहीं हुक्के की चल रही आंधी।
पानी पीना गुनाह हुआ, अधिकारों को चढ़ा दिया फांसी।।
हमसब भी इसमें शामिल हैं, कोई इससे हैं बचा नहीं।
आपस में खाई ऊंच नीच, भाई का भाई सगा नहीं।।
कभी कभी लगता हैं मुझको,मैं बंजारा बन जांऊ l
फिर दुनिया के राग दोष से, मैं भी मुक्ति पा जाऊं ll
लोधी श्यामसिंह राजपूत “तेजपुरिया”
कानपुर देहात उत्तर प्रदेश