धार्मिक आयोजन या नासूर?
धार्मिक आयोजनों की अराजकता
समाज और प्रशासन की उदासीनता
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आजकल हमारे देश में धार्मिकता के प्रति लोगों की रुचि जितनी बढ़ी है, उतनी ही अराजकता भी देखने को मिल रही है। हर धर्म के अनुयायी अपने-अपने धार्मिक आयोजनों को बढ़-चढ़कर करने में व्यस्त हैं, मानो एक होड़ सी मची हो कि कौन अधिक भव्य आयोजन कर सकता है। लेकिन इस प्रतिस्पर्धा का सबसे बड़ा शिकार आम नागरिक और सार्वजनिक व्यवस्था बन रहे हैं।
सड़कों पर आयोजन: श्रद्धा या समस्या
अक्सर देखा जाता है कि सार्वजनिक सड़कों पर टेंट लगाकर धार्मिक आयोजन किए जाते हैं। इससे केवल यातायात बाधित नहीं होता, बल्कि आसपास के लोगों को असुविधा भी होती है। कानफोड़ू लाउडस्पीकरों का शोर न केवल ध्वनि प्रदूषण को बढ़ाता है, बल्कि अस्पतालों में भर्ती मरीजों, विद्यार्थियों और वृद्धजनों के लिए भी परेशानी का सबब बन जाता है। कई बार ये आयोजन सप्ताह भर तक चलते हैं, जिससे स्थानीय निवासियों की दिनचर्या बुरी तरह प्रभावित होती है।
सबसे गंभीर समस्या तब उत्पन्न होती है जब आपातकालीन सेवाएं—जैसे एंबुलेंस या फायर ब्रिगेड—इन बाधाओं की वजह से समय पर नहीं पहुंच पातीं। कल्पना कीजिए, अगर किसी की जान बचाने के लिए समय के खिलाफ जंग लड़ी जा रही हो और सड़क घेरने वाले टेंट रास्ते में आ जाएं, तो इसका दोषी कौन होगा? धर्म, जो मूलतः मानवता की रक्षा के लिए है, क्या वह किसी की जान की कीमत पर किया जाना चाहिए?
यातायात अव्यवस्था, प्रशासन की लाचारी
सड़कों पर ऐसे आयोजनों से ट्रैफिक जाम की समस्या और विकराल हो जाती है। मुख्य सड़क अवरुद्ध होने के कारण लोग गलियों का सहारा लेते हैं, जिससे छोटे रास्तों पर भी भीड़ बढ़ जाती है। नतीजतन, पैदल चलने वालों और दोपहिया वाहन चालकों के लिए भी मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं।
सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि प्रशासन इन आयोजनों के सामने नतमस्तक दिखाई देता है। नियमों के अनुसार रात 10 बजे के बाद लाउडस्पीकर बजाने की अनुमति नहीं होती, लेकिन यह एक खुला राज़ है कि अधिकांश धार्मिक कार्यक्रम देर रात तक चलते हैं। पुलिस चौकियां और गश्त दल होने के बावजूद ये अवैध कार्यक्रम धड़ल्ले से जारी रहते हैं। सवाल उठता है कि जब अनुमति नहीं दी गई, तो फिर कार्रवाई क्यों नहीं होती?
श्रमिक स्वतंत्रता या गैर-जिम्मेदारी?
कोई भी धर्म असंवेदनशीलता और अनुशासनहीनता की शिक्षा नहीं देता। धार्मिक आस्था व्यक्तिगत हो सकती है, लेकिन जब यह सार्वजनिक असुविधा और सामाजिक अव्यवस्था का कारण बनने लगे, तो इसे धार्मिक स्वतंत्रता नहीं, बल्कि गैर-जिम्मेदाराना आचरण कहना उचित होगा।
यदि यह स्थिति अनियंत्रित बनी रही, तो वह दिन दूर नहीं जब ये धार्मिक आयोजन आम जनता के लिए असहनीय बोझ बन जाएंगे। यह समय है कि समाज और प्रशासन दोनों इस पर गंभीरता से विचार करें और सख्त नियमों को प्रभावी तरीके से लागू करें। क्योंकि किसी भी आस्था का आदर तभी संभव है जब वह दूसरों के अधिकारों का सम्मान करना भी सिखाए।