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20 Dec 2018 · 1 min read

निशा

निशा
बियाबान रेत में
मृगतृष्णा-सा मन
भटकता,मचलता है
सूरज भी छलिया है
उजालों से छलता है
प्रखर उजालों से
चौंधियाई आँखें
उद्भ्रांत मन
सांझ ढलने तक
क्लांत मन
तलाशता,एक छाँव
एक ठहराव
चौंध से बचने का सहारा
एक अँधियारा
काली चुनर ओढ़े
आई निशा
लिए कालिमा का वितान
प्रचंड दाहक से निदान
तिमिर,तम है
स्निग्ध,सुखद
या एक स्याह वहम है
वो नभ में उड़ते खग भी
आ गए है नीड़ में
बेसुध जग लिपट रहा
निद्रा की जंजीर मैं
दिन के तपन का स्वेद
है निशा के ओसकण
मिटा जाती है थकन
और हरित करते ताप सारे
संग मिलकर चाँद-तारे
एक नवजीवन का संचार
फिर से,चल सकने को तैयार
निहित निशा में
जीवन का एक अभिप्राय
फिर क्यूँ,
निशा कालिमा का पर्याय?
-©नवल किशोर सिंह

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