“रिश्तों की मृत्यु”

थोड़ा सा तुम संभल जाना,थोड़ा सा हम संभल जाएं।
क्यों न इस तरह,पुनः जीवित रिश्तों को करते चले जाएं।।
माना थोड़ा सा मुश्किल है,मगर दिल से निभानें की करो कोशिश।
जुड़ जाए तार दिलों के,ऐसा हरसंभव जतन करते चले जाए।।
नहीं लगती जरा भी देर,रिश्तों को मृत्यु तक पहुँचने में।
सो इन्हें अपनत्व के भाव से, मरहम लगाते चले जाए।।
हटीलापन बहुत है घातक, रिश्तों की तारत्मयता में।
सो छोड़कर अहम की चरखी,ढील प्रेम के धागे की देते चले जाए।।
होते हैं धड़कनों से भी बहुत नाज़ुक,दिलों से जुड़े यह सभी रिश्ते।
बिखरा कर फूलों सी मुस्कान,दिल के आंगन में इनको समेटते चले जाएं।।
जहां चुप होना पड़े हमको, वहां डालियों सा झुकते चले जाओ।
नरमी से सहलाए रिश्तें,अहंकार को हृदय के कोने में दबाते चले जाए।।
करो पौधों सी सिंचाई और सराहों बच्चों सा सादा उनको।
स्नेह की मिठाई से,रिश्तों में मिश्री घोलते चले जाएं।।
जो टूटने दिये रिश्ते तो,अकेलापन सारी उम्र सताएगा।
सो कड़वाहट की पुड़िया को,मिट्टी में दबाते चले जाएं।।
मधु गुप्ता “अपराजिता”
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