युद्धक
भाषाओं से ऊपर की है परिभाषाएं!
उन पंथों पर कभी नहीं टिकती बाधाएं!
जिन पंथों पर चलकर कोई राम हुए।
उन्हीं पंथ पर स्वर्णिम पानी घाम हुए।
आज स्वेद की परिभाषाएं बदलूंगा।
मैं पत्थर के काया से भी निकलूंगा।
आज जटिल को सरल बनाने निकला हूं।
आज शैल को तरल बनाने निकला हूं।
जिस प्रेमी के अंतः में अरमान खिलेगा।
उसी प्रेम के भाषा को सम्मान मिलेगा।
घास की रोटी खाकर जो जीवन जी पाए।
वही शून्य साधक ज़हरों से प्यास बुझाए।
आज अखंडित भारत का सम्मान लिखूंगा।
बलिदानी बेटों का ही यशगान लिखूंगा।
आज कथानक को कह दो ऊर्ध्वाधर होकर।
आसमान को भी ला दे इस भूमि पर।
आज सौम्यता है शीर्षक परमार्थ कहुंगा।
आज सकल सृजन सृष्टि शब्दार्थ कहूँगा।
आज देखिए कविता में राणा का भाला।
और युद्ध के मध्य हुआ चेतक मतवाला।
आज देखिए जौहर करती पदमिनियां।
आज देखिए सूर्य तेज पाती हैं मणियां।
और यहां युद्धक भावों को सार मिलेगा।
आज कलम को तलवारों सा धार मिलेगा।
आज कथानक में पोरस जब आएगा।
देख सिकन्दर को माटी चटवाएगा।
आज शिवाजी शंकर जैसे डोलेंगे।
आज खालसा पंथ बाह्य गुरु बोलेंगे।
आज नयन में रक्तोंं की संचार बढ़ेगी।
और धमनियों में युद्धक उद्गार बहेगी।
आज हृदय आतुर होगा फट जाने को।
पर्वत झुककर बोलेगा हट जाने को।
धवल धैर्य खोकर पातक व्यवहार करेगा।
और गगन भी भारत हित जयकार करेगा।
हमने चुना था बुद्ध तुम्हीं ने युद्ध चुना।
सत्य पंथ को कालचक्र आबद्ध चुना।
तो फिर शायद युद्ध रमण पुलकित कर दे।
हो सकता है पुण्य पुष्प अर्पित कर दे।
किंतु बोलो हम रामादल कब हारे हैं?
युद्धकाल में केवल शंभू अवधारे हैं।
दीपक झा “रुद्रा”