लकीरें पूरी न थी हाथों की,

लकीरें पूरी न थी हाथों की,
और हम किस्मत के भरोसे ही रहे।
जिन्हें जानते थे हम मुद्दत से,
शायद वो पहले जैसे न रहे।
न शर्म का कतरा बचा है नैनों में,
न वो वफादार ही नजर आते हैं।
चुन चुन कर फूल बेच दिये गुलशन के,
न जाने किस बात पर वो इतराते है।
श्याम सांवरा……