लड्डू गोपाल की पीड़ा
(छोटी बेटी घर मे रोज लड्डू गोपाल की पूजा करती है,अपने पापा को कुछ कहती है)
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लड्डू गोपाल कुछ कहता पापा,
बड़ी पीड़ा को सहता पापा।
पता नहीं क्या राज है पापा,
पर कान्हा नाराज है पापा।
रोज सुबह जब उसे मनाती।
नहला कर जब भोग लगाती।
अब नहीं वह मुश्काता पापा।
अपना कष्ट बताता पापा।
मुझसे कहता तू है झूठी,
केवल देती मिश्री मीठी।
एक ही भोग रोज क्यों खाऊं।
जी करता घर से भग जाऊं।
अब मैं भी हड़ताल करूंगा,
तेरे पापा से नहीं डरूंगा।
या तो खिलाओ भोग घनेरे,
एक नहीं लाओ बहु तेरे।
मुझे भी चहिए चाकलेट टॉफी,
जेम्स केडबरी आइसक्रीम कॉफी।
लड्डू बर्फी चमचम पेड़ा।
गोल गोल हो या हो टेढ़ा।
कभी तो पिज़्ज़ा बर्गर लाओ,
बदल बदल पकवान खिलाओ।
क्यों खाऊं मैं सूखी मिश्री।
खा कर याददाश्त मेरी बिसरी।
मंदिर में गुमसुम रहता है,
पापा कान्हा सही कहता है।
उसको भी वैराइटी चाहिए,
कल से लाने को हाँ कहिये।
पापा गोपाल है बड़ा हठ्ठी।
उसने कर ली मुझसे कट्टी।
कान्हा समक्ष जाने से डरूं,
कल से न पूजा पाठ करूं।
पापा ने ध्यान से बात सुना,
मन के उसके जज्बात गुना।
भले माधव ने कुछ नहीं कही,
सोचा बेटी कहती है सही।
है सुता की मांग में भोलापन,
पर निहित बड़ी शिक्षा है गहन।
भक्ति में काम न आये अकल।
अर्पण कर दें जो मिला सकल।
ईश्वर हमें कितना देता है,
बदले में कुछ नहीं लेता है।
माया में हम झूल जाते हैं।
कृतघ्न होकर भूल जाते हैं।
बेटी की बात बाप माना,
शुरु किया बारी बारी लाना।
बेटी बहु भोग लगाती है,
वही भोग स्वयं खा जाती है।
बेटी से पूछा कैसा है,
क्या कान्हा अब भी वैसा है।
बेटी पापा को दे झप्पी,
कहती अब कान्हा है हैप्पी।
सतीश सृजन, लखनऊ.