मैं समय की रेत हूॅ॑
मैं तो समय की रेत हूॅ॑
मुट्ठी में भला कब आती हूँ
कितने भी करे जतन मानव
हाथों से फिसल जाती हूँ
मत सोच कल क्या होगा
जब तक हूँ जी भर जी ले तूँ
जब तक हूँ पास तुम्हारी हूँ बस
फिर हाथ कहाँ कब आती हूँ
कितने भी करे जतन…………
बैठे हैं हाथ पे हाथ धरे
कहते हैं बहुत पड़ा जीवन
नादान हैं आश नहीं कल की
हर पल खिसकती जाती हूँ
कितने भी करे जतन………..
प्रकॄति का है ये नियम
जो पनपा है फ़ना भी होगा
जीवन उपरांत है मॄत्यु निश्चित
कब सदा को मैं रह पाती हूँ
कितने भी करे जतन……….
‘V9द’ सोच मत ऐसे
ठहराव नहीं होता अच्छा
बस राही बनकर चलता चल
मंजिल बढ़ने से आती है
कितने भी करे जतन……..
स्वरचित
V9द चौहान