मेरी गुड़िया (संस्मरण)
बचपन की अपनी एक दुनिया होती है। इस दुनिया में मित्रों से अधिक प्रिय खिलौने और उनसे जुड़े खेल होते हैं। कोई व्यक्ति जब बच्चा होता है तो उसे कोई न कोई खिलौना विशेष रूप से प्रिय होता है। यह खिलौना उसके लिए मात्र खिलौना न होकर उस दौर में उसकी निजी पूँजी सा महत्वपूर्ण होता है, जिसका खो जाना उसके लिए इस कदर असहनीय होता है कि उसके बालमन पर ऐसी अमिट छाप छोड़ जाता है, जिसे अपनी स्मृति से मिटा पाना उसके सम्पूर्ण जीवन में
असम्भव सा होता है।
बचपन में मेरा प्रिय खिलौना मेरी गुड़िया थी। यह गुड़िया कब, कहाँ और कैसे मेरी जिंदगी का हिस्सा बनी, कुछ याद नहीं। याद है तो बस इतना कि बचपन के कुछ महत्वपूर्ण वर्ष हमने साथ गुजारे। मेरी यह गुड़िया मध्यम कद की, गोल चेहरे व गोल-गोल आँखों, गौर वर्ण व सुनहरे बालों वाली खूबसूरत साथी थी।
बचपन के कितने वर्ष मैंने इसके साथ खेल कर बिताये, पता नहीं। किन्तु इसके बिना उन दिनों मेरा हर दिन, हर खेल अधूरा सा रहता था। उठते-बैठते, सोते-जागते जहाँ तक सम्भव हो, गुड़िया मेरे साथ ही होती और मेरे लगभग प्रत्येक खेल का केन्द्रबिन्दु होती। मुझे इससे इतना लगाव था कि अपने छोटे-छोटे हाथों से मैं अपनी बुद्धि व योग्यतानुसार इसके वस्त्र बनाती और उन वस्त्रों को पहनाकर अनेक प्रकार से इसे सजाती-सँवारती। ऊन सलाई लेकर इसके लिए गर्म कपड़े भी मैंने अपनी बुद्धि अनुसार बुने और पहनाये।
आज के दौर में तो हर वस्तु बाजार से तैयार खरीद सकते हैं। किन्तु हम जब बच्चे थे तब खेल भी खेलने हेतु अपनी पूर्ण कुशलता एवं कल्पनाशीलता का प्रयोग करना पड़ता था। खेलने के लिये साथी व साधन दोनों जुटाने होते थे।
गुड़िया से वैसे तो हम किसी भी प्रकार खेल लेते थे। किन्तु हमारा सर्वाधिक प्रिय खेल गुड़िया की शादी होता था, जिसके लिए वह सम्पूर्ण व्यवस्था बनाने का हमारा प्रयास रहता जोकि वास्तव में शादी हेतु आवश्यक होती है। अतः सर्वप्रथम हम बच्चे जोकि मेरी बहनें एवं सहेलियाँ होती थीं, सब दो टोलियों वर एवं वधू पक्ष में बँट जाते। फिर बुद्धि अनुसार वे समस्त प्रक्रियाएँ पूर्ण करने का हमारा प्रयास रहता जो हम अक्सर विवाह में होते देखते थे।
फिर एक दिन ऐसा हुआ कि मेरी प्रिय गुड़िया मुझसे सदा के लिये दूर कर दी गयी। दरअसल व्यक्तिगत संकीर्ण विचारधारा के कारण मेरे छोटे चाचाजी का दृष्टिकोण था कि गाड़ियों से खेलने के कारण परिवार में बेटियों की संख्या बढ़ती है। यही कारण था कि जब कभी हम गुड़िया से खेलते तो उन्हें बहुत बुरा लगता था। अतः एक दिन ऐसे ही खेल खेलते समय उन्होंने मेरी गुड़िया बीच खेल में उठा ली और उसके सभी अंग अलग-अलग कर घर के बाहर नाले में फेंक दिये। इसके बाद मैं उस गुड़िया से कभी खेल नहीं पायी। परन्तु आज भी वह गुड़िया और उससे जुड़ी यह घटना कहीं भीतर तक मेरी स्मृतियों में बसी है।
अक्सर जब कभी समाज में किसी बेटी से दुर्व्यवहार होते देखती या सुनती हूँ, मन बेहद आहत व अपमानित महसूस करता है कि हम ऐसे समाज का हिस्सा हैं, जहाँ न केवल बेटी अपितु उसके खिलौनों से भी भेदभावपूर्ण व्यवहार करने वाले लोग मौजूद हैं। कहीं न कहीं इस घटना ने मुझे प्रेरित किया कि बेटी को स्वयं में इतना सक्षम होना चाहिए कि अपने अस्तित्व एवं स्वाभिमान को सुरक्षित रख सके।
रचनाकार :- कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)।
दिनांक :- ०४/०८/२०२१.