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25 Jul 2024 · 5 min read

मंद बुद्धि

मंद बुद्धि

मोहन दस साल का था और मंद बुद्धि बच्चों के स्कूल में पढ़ता था । स्कूल काफ़ी बड़ा था , बहुत बड़ा मैदान था , दो मंज़िला इमारत थी । स्कूल में बहुत बड़ी रसोई थी, जिसमें यह बच्चे खाना बनाना सीखते थे । एक वर्कशॉप थी , जहां यह पतंग बनाना , राखी बनाना जैसे छोटे छोटे काम सीखते थे । फिजयोथिरेपी की सुविधा थी ।गिनती, थोड़ा बहुत पढ़ना सीखने के लिए कक्षाएँ थी , बच्चे अपनी आयु के हिसाब से नहीं अपितु बौद्धिक क्षमता के अनुसार एक कक्षा में डाले जाते थे । सुबह प्रार्थना होती थी और स्कूल की उपलब्धियों और बच्चों के जन्मदिन मनाये जाते थे । अक्सर यह बच्चे इन सबका अर्थ नहीं समझ पाते थे , परन्तु स्कूल अपनी पूरी तन्मयता से यह सब करता जाता था , उसका एक कारण था , स्कूल में पढ़ाने वाली बहुत सी अध्यापिकाएं इन बच्चों की मातायें थी , जो ज़िन्दगी की इस जद्दोजहद में अपने बच्चों को किसी तरह काबिल बनाने में लगी थी । वातावरण में दर्द तो था , पर स्नेह और आशा भी थी । मोहन यहाँ थोड़ी बहुत भाषा सीखता था और उसका बहुत सा समय अपनी कमजोर मांसपेशियों को मज़बूत करने के लिए व्यायाम करने में जाता था ।

विभा तेईस वर्ष की थी और उसे एक मनोवैज्ञानिक के रूप में इस स्कूल में नौकरी मिली थी । उसका काम था हर बच्चे का बौद्धिक स्तर नापना और उसके हिसाब से पाठ्यक्रम तैयार करके यह बताना कि बच्चे को पढ़ाया कैसे जाये ।

मोहन बाक़ी बच्चों से अधिक बुद्धिमान था , उसकी भाषा भी बुरी नहीं थी , वह लगातार पढ़ने लिखने का प्रयत्न करता , रोज़मर्रा की सूचनाओं को वह बाक़ी बच्चों से अधिक समय तक याद रख सकता था, उसे इतनी मेहनत करता देख विभा का मन उसके लिए द्रवित हो उठता था ।

एक दिन फिजयोथिरेपिस्ट छुट्टी पर थी और मोहन को व्यायाम कराने की ज़िम्मेदारी विभा पर आ गई । मोहन स्टेशनरी साइकिल चला रहा था, विभा थोड़ी दूरी पर बैठी अपने ख़्यालों में गुम थी , विभा ने अचानक सिर उठाकर मोहन को देखा तो मोहन ने उसे एक मधुर सी मुस्कराहट दे दी । वह भी मुस्करा कर उसके पास जाकर खड़ी हो गई ।

“ तुम्हें अच्छा लग रहा है ?” विभा ने मोहन के गाल सहलाते हुए कहा ।
“ नहीं । “ थोड़ा रूक कर कहा ,” पर आप अच्छे हो ।”
“ शुक्रिया… तुम भी बहुत अच्छे हो ।” विभा ने हंसते हुए कहा ।
“ मेरी माँ कहती है, मैं अच्छा हूँ ।” मोहन ने खुश होते हुए कहा ।
“ और तुम्हारे पापा , वे क्या कहते है ?”
“ उन्हें मैं पसंद नहीं ।”
“ तुम्हें कैसे पता ?”
“ मुझे पता है , वे मेरी माँ को भी पसंद नहीं करते , क्योंकि वह मुझे पसंद करती है ।”
इससे पहले कि विभा कुछ कहती , मोहन ने फिर कहा,
“ मैं ऐसा हूँ न , इसलिए वे मुझे पसंद नहीं करते ।”
“ नहीं ऐसा नहीं है , पापा हमेशा अपने बच्चों को प्यार करते है । “ विभा ने शिथिलता से कहा ।
मोहन ने इसका उत्तर नहीं दिया, वह जाने लगा तो विभा ने उसे गले से लगा लिया ।

कुछ दिनों बाद विभा बाज़ार में ख़रीदारी कर रही थी , जब उसने मोहन को अपनी माँ के साथ देखा । वह वीलचेअर पर बैठा था , देखकर उसका मन भर आया , पहली बार स्थिति की गंभीरता उसे भीतर तक भिगो गई । मोहन के पास जाकर उसने उसे स्नेह से सहलाया , उसकी माँ से थोड़ी बातचीत करके जब जाने लगी तो मोहन ने धीरे से कहा ,” आप अच्छे हो ।”
“ आप भी ।” उसने झुककर मोहन के गाल सहलाते हुए कहा ।

समय ऐसे ही बीत रहा था , विभा धीरे-धीरे अपनी नौकरी से ऊब रही थी , उसके भीतर का स्नेह भी जैसे रिक्त हो रहा था , वह जवान थी , बुद्धिमान थी , वह अपने जैसे लोगों के साथ समय बिताना चाहती थी , इस एकरूप जीवन से उसे बदलाव चाहिए था ।

बुधवार का दिन था , बाहर बरसात की पहली फुहार से पूरी प्रकृति सुशोभित हो रही थी , वह अपने छोटे से कैबिन में बैठी बच्चों की प्रगति की रिपोर्ट देख रही थी , अचानक बिजली चली गई, और उसने खिड़की खोल दी , एक नज़र बाहर की दुनिया देखकर उसकी बेचैनी और भी बढ़ने लगी । न जाने क्यों उसमें एक क्रूरता जन्मने लगी , उसे लग रहा था , वह उठे और किसी को ज़ोर का थप्पड़ मारे । उसी समय मोहन ने अपनी अध्यापिका के साथ उसके कैबिन में प्रवेश किया । अध्यापिका ने कहा,

“ इसकी माँ को आज आने में देर हो गई है, और मुझे घर जाना है, आप कृपया इसका तब तक ध्यान रख लो, जब तक इसकी माँ इसे लेने के लिए नहीं आती ।”
विभा ने स्वीकृति में सिर हिला दिया , और वापिस अपने रिपोर्ट कार्ड पर लौट गई । मोहन उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गया ।

विभा जानती थी कि मोहन उससे किसी तरह के संप्रेषण की आशा रखता है , कम से कम एक मुस्कराहट , जो विभा आसानी से दे सकती थी , पर इसके विपरीत उसके भीतर की क्रूरता प्रबल हो उठी, वह उसे चोट पहुँचाना चाहती थी ।

उसने अपनी आँखों में सारी नफ़रत और ग़ुस्सा भरकर उसे देखा , और वह जान गई उसकी यह भावना मोहन तक पहुँच गई है । मोहन ने अपनी आँखें झुका ली , वह लगातार फ़र्श को देख रहा था , शर्म और ठुकराये जाने की पीड़ा उसके चेहरे पर साफ़ लिखी थी ।

यह सारा संप्रेषण एक क्षण में हुआ था, मोहन को इस दशा में देखकर उसकी क्रूरता समाप्त हो गई , उसकी जगह उसके भीतर लज्जा और पश्चात्ताप के भाव उभर आए ।

उसकी माँ के आने पर उसने स्वयं को संतुलित करने का प्रयत्न किया, वह माँ के साथ आवश्यकता से अधिक अपनापन दिखा रही थी , उसे लग रहा था जैसे उसने कोई चोरी की है, और वह उसे छुपा रही है , मोहन जाने लगा तो उसने उसके पास जा उसे गले लगाने का प्रयत्न किया ताकि क्षति पूर्ति हो सके , परन्तु मोहन ने उसकी कोशिश को ठुकरा दिया ।

उसके बाद विभा कई रातों तक ठीक से सो नहीं पाई , एक अपराध बोध उसके मन पर छाने लगा ।

विभा सोच रही थी , यह सही ही तो है कि हमें एक-दूसरे से तर्क नहीं भावनायें जोड़ती हैं , जिस बच्चे को मैंने मंद बुद्धि समझा था , उसका इमोशनल कोशंट मेरे बराबर निकला , और क्या यह सच नहीं कि हमारे सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क की भी अपनी सीमा है , फिर किस बात का घमंड ?

कुछ वर्षों में विभा एक सफल मनोवैज्ञानिक हो गई, परन्तु वह मोहन को कभी नहीं भूली , उस मंद बुद्धि बच्चे ने ही तो उसे सिखाया था, भावनाओं की भाषा सार्वभौमिक है , और उनको ठुकराना अपनी पहचान ठुकराना है ।

— शशि महाजन

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Language: Hindi
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