थिओसॉफी के विद्वान पंडित परशुराम जोशी का व्याख्यान
थिओसॉफी के विद्वान पंडित परशुराम जोशी का व्याख्यान
(दिनांक 15 अप्रैल 1991 रामपुर, उत्तर प्रदेश)
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451
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थियोसॉफी की अध्ययन गोष्ठी में प्रस्फुटित हुए स्वर मानवता और एकात्मता के
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थियोसॉफी की अध्ययन गोष्ठी में शामिल होना आध्यात्मिक दृष्टि से एक अलग ही अनुभव होता है। इन गोष्ठियों में न तो समारोहत्व का तामझाम होता है और न ही औपचारिकताओं से बोझिल होता माहौल । ऊपर से शुष्क, किन्तु भीतर से विचार-रस की धारा को बहाने वाली शांत जागती नदी थियोसाफी की गोष्ठियों में विद्यमान रहती है। ऐसी ही एक गोष्ठी श्री हरिओम जी के संचालनत्व में 15 अप्रैल, सोमवार को रात्रि 8 बजे ज्ञान मंदिर पुस्तकालय, रामपुर में हुई। थियोसाफी के विद्वान पंडित परशुराम जोशी जी का विद्वत्तापूर्ण भाषण हुआ। विषय था : वर्तमान युग की पीड़ा और उपचार
जोशी जी का बोलना बहुत सहज था। उनकी दृष्टि विश्वव्यापी थी और उनके सरोकार सारी मानवता से जुड़े हुए थे । ज्ञान मंदिर की छत पर खुले आसमान के नीचे होने वाला ऐसा प्रवचन निश्चय ही श्रोताओं के लिए वर्तमान युग में विरल अनुभव था। उस प्रवचन में जोशी जी ने सब धर्मों में एकता का दर्शन करने पर जोर दिया और मनुष्य-मात्र के एकीकरण की आवश्यकता बताई। उन्होंने कहा कि वर्तमान युग की पीड़ा की असली वजह यह है कि हम बॅंट गए है और निरन्तर संकीर्ण होते जा रहे हैं। हममें अलगाव की भावनाऍं बढ़ रही हैं और हमारी सारी चेष्टाएं पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई हैं। सारा समाज स्वार्थों को दौड़ में टूट रहा है। सबके मन में अशान्ति है। पैसा, पद और सम्मान ही जीवन की घुरी बन गया है। यह युग की पीड़ा है कि करोड़पति को भी शान्ति नहीं है और आई० ए० एस० अफसर भी कराह रहा है। पीड़ा का कारण यह है कि भेद की बुद्धि बढ़ रही है। यह मेरा है, वह पराया है, इससे मेरा स्वार्थ सधेगा, वह मेरे लिए पद-प्रतिष्ठा प्रद रास्ता होगा- ऐसा सोच और व्यवहार ही जगत की पीड़ा का मुख्य कारण है।
मगर उपचार क्या है ? पंडित परशुराम जोशी बताते है कि उपचार यही है कि हमारी बुद्धि भेद से अभेद को ओर बढ़े और एकात्म-भाव की वृद्धि में बदल जाए । तभी जीवन में शांति, संतोष और प्रसन्नता का नर्तन होगा और द्वेष, ईर्ष्या और मोह के विकारों का नाश ।
मानव और मानव में कोई भेद नहीं हो और सबके मन एक हों तथा जाति, मजहब, प्रांत, देश की दीवारें टूटकर मानव-मानव के हृदयों का ऐसा महामिलन हो कि कोई छोटा-बड़ा, ऊॅंचा-नीचा, अपना-पराया न रहे । यही सही उपचार है। जो बातें हम में प्रेम बढ़ाती हों, उन्हें अपनाएं। जिन बातों से प्रेम घटता हो, उन्हें ठुकराऍं- यही धर्म है। पंडित जोशी जी ने कहा कि कोई योग ऐसा नहीं जो गेरुए कपड़े पहन गुफाओं में ही हो । सिद्धान्त को व्यवहार में उतारकर संसार में रहते हुए ही व्यक्ति पूर्ण योगी की स्थिति प्राप्त कर सकता है। ममत्व के स्थान पर समत्व के भाव की स्थापना हो योग है।
जोशी जी एक घंटा बोले । पश्चिम में भारत की वैचारिक संपदा के प्रति आकर्षण का उन्होंने बहुत रोचक उल्लेख किया। पश्चिम में शाकाहारी लहर की चर्चा भी की। सारी दुनिया को उच्च से उच्चतर मानसिक धरातल पर ले जाने को उनकी चाह बहुत तीव्र थी। पर, भारत के हर व्यक्ति के अन्तर्मन को बहुत शुद्ध और पवित्र तथा अकलुषित तथा प्रेम के विराट महासागर में बदलने की उनकी आकांक्षा ही संभवत: उन्हें नगर-नगर थियोसॉफी के संदेश को पहुँचाने के लिए प्रेरित कर रही थी । उनको सुनना सुखद था, क्योंकि वह प्रेरणाप्रद था और ज्ञानबर्धक भी ।
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नोट : रवि प्रकाश द्वारा लिखित यह रिपोर्ट-लेख सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक, रामपुर (उत्तर प्रदेश) अंक 20 अप्रैल 1991 में प्रकाशित हो चुका है