उपन्यास: “न्याय का पथिक – डॉ. भीमराव अंबेडकर”
डॉ. भीमराव अंबेडकर पर आधारित एक छोटा उपन्यास निबंध।।
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उपन्यास: “न्याय का पथिक – डॉ. भीमराव अंबेडकर”
वर्ष 1900 का एक धुंधला सा दृश्य। महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव में एक निर्धन लेकिन जिज्ञासु बालक बैठा है, हाथ में पुरानी किताब और आँखों में सपनों की चमक। यह बालक कोई साधारण नहीं था, यह था भीमराव – वह लड़का जो एक दिन भारत के संविधान निर्माता के रूप में पहचाना जाएगा।
भीमराव बचपन से ही अन्याय के खिलाफ थे। स्कूल में उन्हें छुआछूत का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने ज्ञान की मशाल को बुझने नहीं दिया। उनके पिता ने उन्हें सिखाया – “पढ़ो, बढ़ो और अपने अधिकारों के लिए लड़ो।” और भीमराव ने इस शिक्षा को जीवन का मंत्र बना लिया।
विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करना उनके संघर्ष का अगला पड़ाव था। कोलंबिया विश्वविद्यालय और फिर लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स – उन्होंने वहां से न केवल डिग्रियां अर्जित कीं, बल्कि एक नया दृष्टिकोण भी सीखा। जब वे भारत लौटे, तो उनके मन में एक ही उद्देश्य था – समाज को न्याय और समानता का रास्ता दिखाना।
राजनीति में कदम रखते ही उन्होंने दलितों के अधिकारों की आवाज बुलंद की। उन्होंने कहा – “मैं उस धर्म को मानता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सिखाए।” यही सोच उन्हें बौद्ध धर्म की ओर ले गई, जहाँ उन्होंने आत्मा की शांति और सामाजिक समानता का मार्ग पाया।
1947 में जब भारत आज़ाद हुआ, तो उन्हें संविधान निर्माण का जिम्मा सौंपा गया। यह वही भीमराव थे जिन्हें कभी स्कूल में पानी पीने की इजाज़त नहीं थी, आज वे भारत के भविष्य की नींव रख रहे थे।
उपन्यास का अंतिम दृश्य – दिल्ली के संसद भवन में एक वृद्ध डॉ. अंबेडकर संविधान की प्रति हाथ में लिए खड़े हैं। उनकी आँखों में संतोष है, और वह कहते हैं, “हमारा संविधान केवल कानून नहीं, एक क्रांति है – सामाजिक न्याय की क्रांति