ये चाभी अपनी खुशियों की, जो औरों को हाथों में थमाओगे,

ये चाभी अपनी खुशियों की, जो औरों को हाथों में थमाओगे,
इक दिन खुद की मुस्कान के लिए, खुद को हीं तड़पता पाओगे।
मन के अपने साज़ को जो, औरों की धुन पर सजाओगे,
इक दिन खामोश वीरानों में, खुद को चीखता पाओगे।
नींदों को अपनी हारकर जो, औरों को लोरी सुनाओगे,
इक दिन जागती रातें होंगी, यूँ नींदों के लिए तरस जाओगे।
घर की अपनी बुनियाद को जो, औरों की जमीं पर बसाओगे,
इक दिन अफ़सोस की ईंट लिए, खुद को खंडहरों में भटकाओगे।
रौशनी अपने घर की जो, औरों की दुनिया से लाओगे,
इक दिन होगा अँधेरा इतना कि, खुद को हीं जलता पाओगे।
सुकूं के अपने लम्हें जो तुम,औरों से मिलते वक़्त को बनाओगे,
इक दिन बेचैनियों के भँवर में, साँसों को अपनी गँवाओगे।
जीवन का अपने लक्ष्य भूलकर, जो औरों का पथ अपनाओगे,
इक दिन जख्मी पैर लिए, किसी मोड़ पर बैठ पछताओगे।
नजरों में अपनी तुम जबतक जो, खुद को नहीं उठाओगे,
‘पहले तुम नहीं’, ‘तुम भी हो’ ये दुनिया को कैसे समझाओगे।