भ्रष्टाचार का बोलबाला, जब हो न्याय के मुंह पर ताला: अभिलेश श्रीभारती

साथियों यह हमारे देश की कितनी बड़ी विडंबना है कि हम जिस न्यायपालिका को सामाजिक न्याय और तुला का एक महत्वपूर्ण तुला मानते हैं वहीं यदि भ्रष्टाचार में लिप्त हो या वह आम जनमानस और न्याय से पक्षपात करता हूं तो न्याय और अन्याय के बीच का जो मतभेद हैं शून्य हो जाता है और इस मतभेद को हाल के ही एक घटना से समझते हैं।
दिल्ली की सर्दियों के बीच होली की छुट्टियां अपने चरम पर थीं। लोग रंगों और मिठाइयों में डूबे थे, लेकिन राजधानी के एक सरकारी आवास में जलते हुए कुछ और ही रंग थे—नकदी के हरे और लाल नोट, जो आग की लपटों में बदलकर राख बन चुके थे। यह आवास किसी आम नागरिक का नहीं, बल्कि खुद न्याय के रक्षक, यानि यशवंत वर्मा का था।
आग बुझाने जब दमकल विभाग की टीमें पहुंचीं, तो राख में दबे हुए कुछ अधजले कागजों ने सभी को चौंका दिया। ये कोई दस्तावेज़ नहीं, बल्कि हजारों-लाखों-करोड़ों के नोटों का जखीरा था। कुछ नोट आधे जले थे, कुछ पूरी तरह राख में तब्दील हो चुके थे, लेकिन संदेश स्पष्ट था—यह कोई आम दुर्घटना नहीं थी, यह किसी न किसी ‘सिस्टम’ को बचाने का प्रयास था।
जनता को उम्मीद थी कि अब मामला CBI और ED के पास जाएगा। गिरफ्तारियां होंगी। कोई बड़ी जांच बैठेगी। लेकिन असली धमाका तो तब हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने न्याय की गंगा बहाने की बजाय यशवंत वर्मा का ट्रांसफर सीधे इलाहाबाद हाईकोर्ट कर दिया।
भ्रष्टाचार की सजा या नई पोस्टिंग?
अब इस नहीं नीति को देखते हैं हमारे मन में कुछ सवाल गूंज रहे हैं जो इस प्रकार से है 👇
इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने इस फैसले पर तीखी प्रतिक्रिया दी। एक वरिष्ठ वकील ने कटाक्ष किया—
👉 “अगर घोटाले में फंसे जजों को ट्रांसफर करना ही समाधान है, तो नेताओं और पुलिसवालों को भी घोटाले के बाद दूसरे जिले में भेज देना चाहिए!”
👉 “CBI, ED और विजिलेंस डिपार्टमेंट को बंद कर देना चाहिए, क्योंकि अब ‘जस्ट ट्रांसफर पॉलिसी’ लागू हो गई है!”
सवाल यह उठता है कि अगर ट्रांसफर ही एकमात्र उपाय है, तो क्या इसे न्याय कहा जा सकता है? क्या इस फैसले का मतलब यह नहीं है कि सत्ता की ऊँची कुर्सियों पर बैठे लोगों के लिए कानून अलग है और आम जनता के लिए अलग?
अब मेरे हिसाब से इस नीति का नाम ट्रांसफर-फॉर-करप्शन मॉडल रख देना चाहिए।
यह पहली बार नहीं है जब किसी न्यायाधीश, अफसर या बड़े अधिकारी को घोटाले के बाद बस ‘ट्रांसफर’ कर दिया गया हो। यह एक ऐसा मॉडल बन गया है, जिसमें भ्रष्टाचार की सजा जेल नहीं, बल्कि बस एक नई पोस्टिंग होती है।
किसी IAS अफसर पर रिश्वत का आरोप लगे? ट्रांसफर कर दो।
किसी IPS अफसर का नाम किसी माफिया से जुड़े? ट्रांसफर कर दो।
कोई राजनीतिक दल के करीबी जज घोटाले में फंस जाए? ट्रांसफर कर दो।
तो सवाल उठता है कि क्या ‘न्याय’ अब सिर्फ लोकेशन बदलने का खेल बन गया है?
इस पूरे मामले में सबसे दिलचस्प पहलू जनता की प्रतिक्रिया होगी। क्या लोग इस ट्रांसफर-फॉर-करप्शन मॉडल को स्वीकार कर लेंगे? या फिर इस बार सच में कोई बड़ा कदम उठाया जाएगा?
आज जब सत्ता और न्यायपालिका का गठजोड़ खुलकर सामने आ रहा है, तब सबसे बड़ा सवाल यही है— क्या हमारा न्याय तंत्र निष्पक्ष है? या फिर यह सिर्फ उन लोगों की रक्षा करने के लिए बना है, जिनके पास सत्ता और पैसे का प्रभाव है?
क्योंकि अगर यही न्याय की परिभाषा है, तो फिर कल कोई भी अपराधी सिर्फ “ट्रांसफर” के सहारे खुद को बचा सकता है। और अगर यह सच है, तो देश को न्याय की नहीं, बल्कि एक नई क्रांति की जरूरत है!
✍️ लेखक ✍️
अभिलेश श्रीभारती
सामाजिक शोधकर्ता, विश्लेषक, लेखक