नारी सशक्तिकरण या पुरुष दमन? विवाह, विश्वास और पाखंड के दोहरे मापदंडों का खेल: अभिलेश श्रीभारती

साथियों,
क्या लिखूं मैं
क्योंकि मेरे कलमें और मैं पहले ही थक चुका हूं।
फिर भी अपनी हिम्मत जुटाकर इस लड़खड़ाते कलाम की सहारा बनते हुए सामाजिक रिश्तों के बदलते हुए परिभाषा और सोशल मीडिया पर बदलती मानसिकता को लिखने का साहस कर रहा हूं: अभिलेश श्रीभारती
साथियों, रात के अंधेरे में जब सड़कें सुनसान होती हैं, तब भी न्याय की लड़ाई मोमबत्तियों की लौ में जलती रहती है। लेकिन यह लौ कब जलती है और कब बुझा दी जाती है, यह प्रश्न आज के समाज की सबसे बड़ी विडंबना बन चुका है। जब किसी लड़की के साथ अन्याय होता है, तो पूरा समाज सड़कों पर उतर आता है, सोशल मीडिया पर जस्टिस की मांग उठने लगती है। लेकिन जब अन्याय का शिकार कोई पुरुष होता है, तब वही समाज मूकदर्शक बनकर बैठा रहता है। न कोई विरोध, न कोई प्रदर्शन, न ही कोई जस्टिस की मांग।
आखिर क्यों पुरुषों के अन्याय पर समाज के मुंह पर सौ सौ क्विंटल को तालो लग जाते हैं।
अब मेरे कलम कानून की निष्पक्षता पर सवाल खड़ी करती हुई न्यायपालिका को कटघरे में खड़ा करती है।
मतलब
कहने को हमारा कानून सबके लिए समान है, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? कानून की आड़ में एक वर्ग को विशेष सुरक्षा दी गई है, जबकि दूसरा वर्ग लगातार शोषित हो रहा है। तलाक के बाद गुजारा भत्ता (Alimony) का प्रावधान स्त्री को सुरक्षित करने के लिए था, लेकिन अब यह कई जगहों पर एक हथियार बन चुका है, जिसका इस्तेमाल पुरुषों के खिलाफ हो रहा है। बिना किसी गलती के, बिना किसी अपराध के, केवल पुरुष होने के कारण एक व्यक्ति को अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा जीवनभर देना पड़ता है। यह कैसा न्याय है?
आजकल तलाक लेना गर्व की बात बन गया है। सोशल मीडिया पर महिलाएँ इसे किसी उपलब्धि की तरह पोस्ट करती हैं—”फ्रीडम सेलिब्रेशन”, “न्यू बिगनिंग”, “सिंगल और खुश” जैसे कैप्शन के साथ तस्वीरें डालती हैं। लेकिन क्या तलाक केवल एक व्यक्ति की स्वतंत्रता का जश्न होता है? क्या इसका दर्द केवल पुरुष ही महसूस करता है? यह प्रश्न भी विचारणीय है।
विवाह केवल एक कानूनी समझौता नहीं, बल्कि एक पवित्र बंधन होता है। लेकिन आज के समय में इसकी पवित्रता को लेकर लोग गंभीर नहीं हैं। किसी भी व्यक्ति का अतीत (Past) उसकी असली पहचान को दर्शाता है। लेकिन जब यह अतीत सुविधानुसार छिपाया जाता है, तो फिर यह धोखा बन जाता है।
आज यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है कि पहले किसी और के साथ मनमर्जी से जीवन जिया जाता है, फिर जब जिम्मेदारियों का समय आता है, तो जीवन साथी से अपेक्षा रखी जाती है कि वह पूरी तरह से वफादार रहे। सवाल यह है कि क्या वफादारी केवल एकतरफा होनी चाहिए? यदि पुरुष का अतीत जाँच का विषय बन सकता है, तो क्या स्त्री का अतीत मायने नहीं रखता?
कई बार देखा जाता है कि विवाह के बाद भी कुछ स्त्रियाँ अपने विवाहेत्तर संबंध जारी रखती हैं। यह केवल अनैतिक ही नहीं, बल्कि अन्याय भी है। विवाह एक भरोसे की नींव पर टिका होता है, लेकिन जब यह भरोसा टूट जाता है, तो संबंधों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। क्या समाज में विवाह की यह नई परिभाषा स्वीकार्य होनी चाहिए?
👉पुरुषों के अधिकारों की अनदेखी क्यों???
समाज में जब कोई पुरुष गलती करता है, तो हंगामा मच जाता है। उसे कठोर दंड की मांग की जाती है। लेकिन जब कोई स्त्री वही गलती करती है, तो उसे “उसकी स्वतंत्रता”, “उसका निजी जीवन” कहकर अनदेखा कर दिया जाता है। आखिर इस दोहरे मापदंड का जिम्मेदार कौन है?
पुरुषों के लिए कोई न्याय की लड़ाई नहीं लड़ता, क्योंकि यह विषय “लोकप्रिय” नहीं है। लेकिन क्या न्याय भी अब लोकप्रियता का मोहताज हो गया है?
👉 समाज मौन क्यों???
समाज को यह समझना होगा कि जितना दहेज गलत है, उतना ही जबरन गुजारा भत्ता मांगना भी गलत है। जितना बलात्कार अपराध है, उतना ही विवाहेत्तर संबंध भी अनैतिक हैं। जितना पुरुषों द्वारा स्त्रियों का शोषण गलत है, उतना ही स्त्रियों द्वारा पुरुषों को कानूनी हथियार बनाकर प्रताड़ित करना भी अनुचित है।
इसलिए, विवाह करने से पहले केवल बाहरी दिखावे पर मत जाइए। लड़की के परिवार, उसके आचरण, उसके विचारों और अतीत के बारे में अच्छी तरह से जानकारी लीजिए। यह कोई व्यापार नहीं, बल्कि जीवनभर का साथ होता है। समाज की इस विषम परिस्थिति में सही निर्णय लेना ही एकमात्र उपाय है।
न्याय और नैतिकता दोनों का संतुलन ही एक सभ्य समाज की पहचान होती है। यदि किसी वर्ग को विशेष अधिकार दिए जाते हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं कि दूसरे वर्ग को शोषित किया जाए। यदि हम समाज को सच में निष्पक्ष बनाना चाहते हैं, तो यह आवश्यक है कि हर व्यक्ति को समान अधिकार मिले, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष।
समय आ गया है कि हम इस दोहरे मापदंड को खत्म करें और सच्चे न्याय की ओर बढ़ें। अन्यथा, समाज में संतुलन खत्म हो जाएगा और रिश्तों की पवित्रता केवल एक पुरानी किताब की कहानी बनकर रह जाएगी।
😭😭😭
माफ कीजिए मैं
और आगे सवाल नहीं पूछ सकता।
क्योंकि मुझे पता है इस मौन मुकbसमाज से मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं मिल सकता इसीलिए मेरा प्रश्न व्यर्थ है।
✍️लेखक ✍️
अभिलेश श्रीभारती
सामाजिक शोधकर्ता, विश्लेषक, लेखक
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा संगठन प्रमुख