जो हैं रूठे मैं उनको मनाती चली

प्रेम के पुष्प पग-पग बिछाती चली,
नित्य करती सृजन गीत गाती चली।
पत्थरों को रिझाने की आदत मेरी,
जो हैं रूठे मैं उनको मनाती चली।।
ख़्वाब में आज उनसे मिली ही नही,
मन की कलियां हमारे खिली ही नही।
उधड़े रिश्तों की तुरपाई करती रही,
जाने क्यों अब तलक ये सिली ही नही।
काव्य का अंश बनकर मैं आयी यहाँ,
स्वसृजित धुन मधुर गुनगुनाती चली।
पत्थरों को रिझाने की आदत मेरी,
जो हैं रूठे मैं उनको मनाती चली।।
सांझ की रिक्तिमा का अंधेरा बनी।
दुःख का कारण बहुत ही घनेरा बनी।
सुख का सूरज हुआ मैं प्रकाशित हुई,
फिर मैं सुन्दर, सुनहरी, सवेरा बनी।।
नफ़रत-ए-दौर में प्रेम-दीपक जला,
मैं करामात सबको दिखाती चली।
पत्थरों को रिझाने की आदत मेरी,
जो हैं रूठे मैं उनको मनाती चली।।
दोष गिनती रही उंगलियों पर मगर,
दोष तुम ही बताते तो मिलता सुकूँ।
तुमने रोका नही, तुमने टोका नही,
काश तुम ही बताते कहाँ मैं रुकूँ।।
ख़्वाब बेरंग थे इक जमाने से जो,
मनपसंद रंग उनको दिलाती चली।
पत्थरों को रिझाने की आदत मेरी,
जो हैं रूठे मैं उनको मनाती चली।।
@स्वरचित व मौलिक
कवयित्री शालिनी राय ‘डिम्पल’
आजमगढ़, उत्तर प्रदेश।