टूटते सपने
टूटते सपनें
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टूटते सपनों की
लड़खड़ाती साँसें
अपने बिखरते वक्त में भी
ढूँढती हैं
अवसर
बस एक बार
पूरे सामर्थ्य के साथ
उठकर खड़े होने की
लड़ती हैं,भिड़ जाती हैं
पारिस्थितिक विरोधियों से
उनकी आँखें
मांगती हैं
अवसर के क्षण दो क्षण
जिसमे वो पूरी कर सकें
उन ख्वाबों को
उन दरकते सपनों को
जो युवावस्था में ही
‘अपनों’ के प्रपंच से
क्षत-विक्षत होकर
धराशायी हो गये थे।
-अनिल कुमार मिश्र