मजदूर की दास्तान
घर में दाने को तरसते बच्चे
अपने मम्मी पापा की तरफ
रहे थे ताड़
पापा ने कहा, घर में जो चावल है
उनको उबालकर खिलाओ
मैं आता हूं शहर जाकर
करता हूंँ शाम के खाने का जुगाड़।
पापा सुबह निकले
शहर के चौराहे पर आठ बजे बैठे
आठ से बजे नौ तो नौ से बजे दस
कोई नहीं आया उनको ले जाने बस
दोपहर होने को आई
तो पेट में चुहिया कुलबुलाई
तरसती आंखें निहार रही थी
कोई आएगा, काम देगा
तो घर में शाम की रोटी बनेगी।
अब चिंता लगी सताने
राह देख रहे होंगे बच्चे
नहीं घर में कोई खाने के दाने
सामने से एक अधेड़ ठेकेदार नजर आया
उम्मीद बंधी, शायद कुछ तो काम लाया
पास आकर ठेकेदार फुसफुसाया
क्या साथ मेरे चलोगे
एक घंटे का काम है
इसका कितना मेहनताना लोगे।
साहब, घर में नहीं है कुछ खाने को
पर मना मत करना काम पर ले जाने को
जो देंगे आप मुझे है वो स्वीकार
नहीं है कोई मुझे ज्यादा की दरकार।
मांगा मेहनताना जब काम खत्म कर
हैरान हो आंखें भर आई
सामान से भरा थैला और ₹50 थमाते हुए
ठेकेदार ने कहा
यह पकड़ो अपनी आज की कमाई।
@ विक्रम सिंह