रावण- भरत – कैकई
देवासुर संग्राम की उदघोषणा हो चुकी थी इसलिए देवता एवं राक्षस युध्द की तैयारीयों में जी जान से जुटे हुए थे। दोनों ही चाहते थे कि वो युद्ध जीतें और स्वर्गलोक एवं पृथ्वीलोक के आराध्य बन जाए और हारने वाले को पाताल लोक देकर सदैव के लिए स्वर्गलोक एवं पृथ्वीलोक से निष्काषित कर दें। इसी कारण देवता एवं राक्षस समस्त ब्रह्मांड के उत्तम हथियारों एवं योद्धाओं को अपनी अपनी ओर मिलाने का भरसक प्रयास कर रहे थे। देवासुर संग्राम में जमीन से लेकर आकाश और जल से लेकर वायु तक सभी युद्ध क्षेत्र थे कोई भी कहीं भी अपने दुश्मन को युद्ध के लिए ललकार सकता था। इसलिए देवता एवं राक्षस तलवार, भाले, ढाल, धनुष, वाण, आग के गोले, भूत, पिशाच, दानव, भयंकर सर्प, उड़ने वाले यान, वायु की गति से चलने वाले रथ इत्यादि की व्यवस्था में लगे पड़े थे।
राक्षसों की तरफ से देवासुर संग्राम की तैयारी के लिए ऊत्तम किस्म के घोड़े लाने की जिम्मेदारी युवा, कुशल एवं तेजस्वी राक्षस रावण को दी गई थी। रावण के पिता ब्रह्मा जी के मानस पुत्र ऋषि पुलस्त्य के पुत्र ऋषि विश्रवा थे जो विद्वान ब्राह्मण थे और देवताओं के पूजक एवं हितैषी थे जबकि रावण की माता कैकसी दैत्यराज सुमाली की पुत्री थी, जो राक्षसों की हितैषी थी और देवासुर संग्राम में राक्षसों की विजय की कामना करती थी। रावण की माता कैकसी ऋषि विश्रवा की दूसरी पत्नी थी। रावण का सौतेला भाई धन कुबेर था जो ऋषि विश्रवा की पहली पत्नी से जन्मा था।
इसतरह रावण के पिता ब्राह्मण और माता राक्षसी थी। इससे उसमें दोनों ही गुण भरपूर थे। ज्ञान में वह अपने पिता ऋषि विश्रवा के समान वेद, उपनिषद इत्यादि सभी प्रकार के ज्ञान विज्ञान से ओत प्रोत था तो वहीं शारीरिक शक्ति में वह राक्षसों की भाँति योद्धा, शस्त्रों का जानकार एवं युद्ध कला में निपुण था। रावण के पिता ऋषि विश्रवा रावण को एक श्रेष्ठ ब्रह्म मर्मज्ञ ऋषि बनाना चाहते थे तो वहीं उसकी माता कैकसी रावण को अपने पिता दैत्यराज सुमाली की योजना अनुसार राक्षसों का राजा बनाना चाहती थी, इसलिए ऋषि विश्रवा से शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कराने के बाद वह रावण को अपने पिता दैत्यराज सुमाली के घर ले आयी और फिर उसकी परवरिश वहीं पर दैत्यों के सानिध्य में हुई।
रावण के ज्ञान और बारीक परख को देखकर दैत्यराज सुमाली ने उसे देवासुर संग्राम में राक्षसों के लिए अच्छी नश्ल के घोड़ों का इन्तजाम करने की जिम्मेदारी सौंपी थी। अतः रावण अच्छी नश्ल के घोड़े लेने के लिए कैकेय राज्य में गया। उस समय कैकेय राज्य के घोड़े अपनी गति में सर्वश्रेष्ठ थे किंतु कैकेय राज्य का राजा अस्वपति कैकेय राक्षसों का शत्रु और देवताओं का मित्र था। इसलिए उसने अपने राज्य के सभी घोड़े देवताओं के लिए ही सुरक्षित कर दिए थे। मगर रावण ब्रह्मा जी के मानस पुत्र ऋषि पुलस्त्य का नाती और ऋषि विश्रवा का ब्राह्मण पुत्र था, इसलिए रावण का अपमान करने का अर्थ था स्वयं ऋषि पुलस्त्य और ऋषि विश्रवा एवं समस्त ब्राह्मणों का अपमान था। इन सबके साथ ही रावण महान शिव भक्त था जिसकी अखण्ड भक्ति से महादेव हमेशा प्रशन्न रहते थे। इसी कारण दैत्यराज सुमाली ने रावण को कैकेय राज्य से घोड़े लाने का आदेश दिया था।
कैकेय राज्य पहुँच कर रावण, राजा अस्वपति कैकेय से मिला और उसे अपने आने का कारण बताया। रावण के मुख से संस्कृत के कर्णप्रिय शब्दों का उच्चारण सुन राजा अस्वपति कैकेय बहुत प्रभावित भी हुआ और भय आतंकित भी हुआ क्योंकि रावण के मुख से देव भाषा संस्कृत के कर्णप्रिय शब्द भी योद्धा के धनुष की टनकार के समान गर्जना करते हुए निकल रहे थे। इसतरह रावण ने अपने ज्ञान से राजा अस्वपति कैकेय को निरुत्तर भी कर दिया और डरा भी दिया। राजा चाहता था कि रावण भले ही उसका आदर सत्कार प्राप्त करे किंतु यहाँ के घोड़े राक्षसों के लिए ना लेकर जाए। इसलिए राजा ने रावण से कहा, “ब्राह्मण पुत्र मुझे आपको यहाँ के उच्च नश्ल के घोड़े देने में कोई परेशानी नहीं है किंतु एक दिक्कत है।”
यह सुन रावण ने गरजते हुए कहा, “राजन मेरे ज्ञान के आगे स्वयं पितामह ब्रह्मा जी भी शीश झुकाते हैं, मेरे बाहु बल के सामने देवराज इंद्र, पवन देव, वायु देव, अग्नि देव और वरुण देव भी पानी माँगते है, मेरी संगीत विद्या देवी सरस्वती की वीणा के समान है और मेरी भक्ति पर महादेव हमेशा मोहित रहते हैं, इसलिए मुझे नहीं लगता कि आपके राज्य के घोड़े खरीदने में मेरे आगे कोई समस्या आड़े आने वाली है।”
रावण का उत्तर सुन राजा अस्वपति कैकेय बोला, “ब्राह्मण पुत्र रावण सबसे पहले तो आप यह जान लो कि आप पूर्ण ब्राह्मण नहीं हो क्योंकि आपकी माता देवी कैकसी दैत्यराज सुमाली की पुत्री हैं और मेरा यह प्रण है कि मैं अपने राज्य का एक भी अश्व देवताओं के विरोध में असुरों को नहीं दूँगा”
“राजन यह आपकी प्रतिज्ञा होगी मगर आप भी जान लो कि ईश्वर द्वारा निर्मित किसी भी जीव या वस्तु पर कोई भी अपना नैसर्गिक अधिकार नहीं दिखा सकता, आपका अपने महल एवं स्वयं द्वारा अर्जित धन संपदा पर अधिकार है किंतु घोड़े, जंगल, खेत, पशु, प्रजा इत्यादि पर नहीं हो सकता, ये हवा की तरह स्वतंत्र है। मुँह में हवा भर लेने से व्यक्ति का अधिकार हवा पर नहीं हो जाता कुछ समय बाद ही व्यक्ति को मुँह खोलना ही पड़ता है।”
“मगर आप पूर्ण ब्राह्मण नहीं हो इसलिए मैं आपको देने से मना भी कर सकता हूँ।”
“राजन जब आप मेरे बारे में सबकुछ जानते है तो आप यह भी जानते होंगे कि समस्त जीव विराट पुरुष के शरीर से उत्पन्न हुए है और जब शरीर ही एक है तो मुख से, बाहु से, उदर से या पैरों से जन्में इंसान विभाजित नहीं हो सकते, जिस प्रकार पेड़ पर लगे फल एक समान होते है फिर चाहे वह निचली डाली पर लगें या सबसे ऊँची डाली पर, इसलिए ना कोई ब्राह्मण है ना कोई क्षत्रिय है ना वैश्य और ना ही शुद्र है, सब समान है”
“सब समान है तो ब्राह्मण समाज में भेद क्यों करते हैं?”
“राजन यह भेद जन्म लेने के आधार पर नहीं बल्कि कर्म व्यवसाय आधारित है, जो लड़ता है क्षत्रिय है और ज्ञान में डूबा है वह ब्राह्मण है, जो व्यवसाय करता है वह वैश्य और जो सेवा करता है शुद्र किंतु हैं सभी एक और कोई भी किसी का व्यवसाय अपना सकता है। इसलिए आप जो भेद बता रहे हो वह असुरों में नहीं है बल्कि आपके प्रिय देवताओं में है। इसलिए आप मुझे घोड़े खरीदने से मना नहीं कर सकते।”
रावण की वाक चतुर्यता को देखकर राजा अस्वपति कैकेय स्तब्ध रह गया और बोला, “जो भी हो ब्राह्मण देव मगर मेरे राज्य के घोड़ों का व्यापार केवल देवराज इंद्र के सिक्कों से ही हो सकता है ना कि दैत्यराज के सिक्कों से।”
राजा अस्वपति कैकेय की बात सुन रावण हल्का सा मुस्कुराया और बोला, “मगर स्वर्ण तो समान है, इसी पृथ्वी के गर्भ से आया है जिसपर हम खड़े हैं और जिसको पाने की चाहत में देवासुर संग्राम हम सभी के सामने खड़ा है”
रावण की बात सुन राजा अस्वपति कैकेय चुप हो गया तभी रावण व्यंगपूर्ण मुस्कान से बोला, “तो क्या अब स्वर्ण की भी जाति होती है राजन?”
रावण के व्यंग पर अस्वपति कैकेय बोला, “जो भी हो मगर मेरे घोड़ों का व्यापार केवल देवराज इंद्र की स्वर्ण मुद्रा से ही होगा।”
यह सुन रावण अपनी गठीली कमर से बंधी थैलियों को खोला और उसमें से कुछ सिक्के निकालकर राजा अस्वपति कैकेय को दिखाते हुए बोला, “राजन अगर मैं चाहूँ तो अपने बाहु बल से आपके राज्य के घोड़े ले सकता हूँ और आपमें इतनी सामर्थ्य नहीं कि मुझे रोक सको किंतु मैं यहाँ पर ग्राहक बनकर आया हूँ गुंडा मवाली नहीं इसलिए पूरी तैयारी से आया हूँ।”
रावण के दिए सिक्के देख राजा अस्वपति कैकेय स्तब्ध रह गया क्योंकि रावण ने जो सिक्के उसे दिए वो सभी देवराज इंद्र की ही स्वर्ण मुद्राएं थी। राजा को आस्चर्य चकित देखकर रावण ने कहा, “राजन मेरा सौतेला भाई धन कुबेर है जो देवता के लिए धन की व्यवस्था करता है, यह शायद आपकी याददास्त से निकल गया!”
रावण का व्यंग सुन राजा अस्वपति कैकेय ने कुछ नहीं कहा और उसके चेहरे को एकटक देखते हुए सोचने लगा, “हाँ धन कुबेर भी तो ऋषि विश्रवा का पुत्र है, इसलिए वह इसका सौतेला भाई ही है”
इस तरह रावण ने राजा अस्वपति के राज्य के घोड़े खरीदने की व्यवस्था पूरी कर ली। भले ही रावण राजा अस्वपति को पसंद नहीं था फिर भी उसने रावण को अपने महल में मेहमानों की भाँति रोका किंतु उस स्थान पर नहीं जहाँ पर राज्य के मेहमान रोके जाते थे बल्कि एक गुप्त स्थान पर क्योंकि राजा अस्वपति नहीं चाहता था कि कोई यह जान सके कि असुर रावण कैकेय राज्य के घोड़े खरीदने आया है और राजा का मेहमान बनकर उसके महल में स्थान पाए हुए है।
राजा का यह गुप्त अथिति गृह मुख्य अथिति गृह से दूर और उपवन- बिहार के बीचों बीच था जहाँ पर राजा, रानी, राजकुमारी और उसकी दासियों के सिवाय और कोई नहीं जाता था। वहीं पर बने एक सुंदर भवन में रावण को स्थान दिया और उसे सभी सुविधाऐं उपलब्ध कराई। इस तरह रावण अथिति गृह में सो गया और उसने दूसरे दिन घोड़े खरीदने की योजना बनाई।
दूसरे दिन की सुबह हो चुकी थी, सूरज केसरिया रंग में पूरब दिशा में जीत की पताका फहरा रहा था जिसका आनंद लेने के लिए बागान में चिड़िया चहचहाने लगी फूल बड़ी बड़ी पंखुड़ियों में खिलने लगे और तितली फूलों के मकरंद का पान करने लगी। तभी सम्राट अस्वपति कैकेय की सुंदर, शुशील पुत्री राजकुमारी कैकई तितली की भाँति उस उपवन में अपनी सहेलियों के साथ बिहार करने लगी जिसमें रावण ठहरा हुआ था। कैकई को नहीं पता था कि उपवन में बने भवन में कोई ठहरा हुआ है वह तो हर रोज की भाँति सुबह का आनंद लेने के लिए खिलते हुए फूलों की सुंगध पाने के लिए और पक्षियों का सुरीला संगीत सुनने के लिए वहाँ चली आई थी। मधुवन का भ्रमण करती हुई राजकुमारी कैकई की नजर उस विशेष अथिति गृह में आतिथ्य पा रहे नवयुवक अर्थात रावण पर गई। जिसे देख एक पल के लिए तो वह सिहर उठी कि, “ये युवक कौन है और यहाँ क्या कर रहा है?” किंतु कुछ ही पल बाद रावण के गेहुँआ रंग के बलिष्ठ शरीर को देखकर राजकुमारी कैकई के विचारों से उस अजनबी युवक की अजनबियत समाप्त हो गई और वह उसके चौड़े चौड़े विशाल कंधे, उनपर सूर्य की भाँति दमकता लंबा उजला चेहरा और कंधों पर पानी चू रहे लंबे काले घने घुंघराले बालों को देखकर सम्मोहित सी हो गई और उन्हें ही एकटक देखने लगी। रावण अभी जवान और ब्रह्मचर्यधारी नवयुवक ही था जवानी के प्रथम प्रहर में ही उसने कदम रखा था। ब्रह्मचर्य की ऊर्जा उसके चेहरे पर सूरज की भाँति चमक रही थी तो वहीं उसके ज्ञान और शारीरिक ताकत से उतपन्न विश्वास उसके चेहरे पर हिमालय पर्वत की भाँति गगनचुंबी हो रहा था। रावण कमर पर धोती लपेटकर मिट्टी से बने शिवलिंग के सामने बैठकर योगियों की भाँति एकाग्र चित्त होकर शिव आराधना कर रहा था। रावण की इस एकाग्रता में तितलियाँ उसके नग्न शरीर पर बैठकर अप्सराओं की भाँति उसकी आराधना को भंग करने का दुश्चित्त प्रयास कर रही थी किंतु अपने आराध्य में रावण इस कदर लीन था कि अप्सरा रूपी हजारों तितलियों के रूप लावण्य और कामुकता का उस पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ रहा था। इस तरह रावण का तेन उस मधुबन में सूर्य के समान हर कौने में, हर फूल पर ,हर कली और तितलियों पर प्रस्फुट हो रहा था। कुछ ही पल बाद रावण ने शिवमंत्रों का जाप बहुत ही शुरीली आवाज में करना शुरू किया धीमे-धीमे उसकी आवाज ऐसे बढ़ रही थी जैसे सागर की लहरें किनारे की तरफ बढ़ती हैं चाँद पूर्णिमा की तरफ बढ़ता है। उसकी आवाज मंत्रमुग्ध कर देने वाली थी जिसे सुन ऐसा लग रहा था कि रावण के कंठ में स्वयं देवी सरस्वती ही उतर आई हों। इतनी मधुर और सम्मोहित आवाज सुनकर राजकुमारी कैकई मंत्रमुग्ध हो गई और शीतल हवा में खुद को स्वच्छंद छोड़ देने वाले फूल की भाँति हिलने डुलने लगी। कैकई और उसकी सहेलियों ने ऐसा शिवभक्त पहली बार देखा था वो सब आस्चर्य चकित थी और मौन थी कि वह उन्होंने आज से पहले क्यों नहीं देखा? तभी रावण उठा और शिवलिंग को दंडवत प्रणाम कर कुछ दूरी पर दोनों हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और अपनी दोनों आँखें बंद कर मुँह ऊपर कर हवा को ऐसे महसूस करने लगा जैसे वह स्वयं हवा ही हो। उसके मुख से पुनः एक नया गीत गूँजने लगा और फिर उसी गीत के एक एक बोल पर ऐसे नृत्य करने लगा जैसे उसके सामने उसके आराध्य भगवान शिव बैठे हो। नृत्य में उसकी भाव भंगिमाएँ एवं नृत्य मुद्राएं इतनी सुंदर थी कि देखने वाला गीत के बोल सुने बगैर ही गीत का एक एक शब्द कलम से पत्र पर लिख दे। हालांकि राजकुमाई कैकई भी युद्ध कला, संगीत कला, नृत्य कला इत्यादि में पारंगत थी किंतु उसने ऐसा कभी नहीं देखा कि एक ही पुरुष में इतनी कलाएं अपने उच्चतम शिखर पर मौजूद हों, एकबार को उसे देखकर कैकई को लगा कि यह कोई मानव नहीं बल्कि कोई देवता है जो देवासुर संग्राम की तैयारी के लिए पिताजी के आतिथ्य में ठहरा हुआ है। जो भी था रावण के रूप और कुशलता ने कैकई को अपने हृदय की दासी बना दिया था। उसे देखकर उसका काम जो वर्षों से बांध की भाँति रुका हुआ था धीरे-धीरे दरकने लगा था, उसके शरीर के रौंगटे बसंत के फूलों की कलियों की भाँति उठने लगे थे। इस तरह कुँवारी कैकई उस शिवभक्त नवयुक पर मोहित हो गई और उसका काम जाग उठा था। किंतु रावण का ब्रह्मचर्य इतना तेज था कि उसके मन में रावण प्रति काम भाव आते ही कैकई रजस्वला हो गई। रावण के ब्रह्मचर्य की इस शक्ति को महसूस कर राजकुमारी कैकई ने अपनी सखी से पूछा, “यह तेजस्वी पुरुष कौन है, मंत्र उच्चारण से यह ब्राह्मण लग रहा है, बलिष्ठ शरीर से क्षत्रिय लग रहा है, गायन और नृत्य मुद्रा से कोई गंदर्भ लग रहा है, योग मुद्रा में स्वयं आदियोगी लग रहा है और भक्ति में अपने आराध्य का अंश लग रहा है, आखिर में यह है कौन और कहाँ से आया है?”
कैकई के प्रश्न पर उसकी सहेली सम्मोहित स्वर में धीरे से बोली, “इस युवक के ऊपर सभी गुण ऐसे शुशोभित हो रहे हैं जैसे इंद्रधनुष में सातो रंग एक के ऊपर एक होते हैं, यह कोई आम मनुष्य नही लगता बल्कि यह तो देवो में भी कोई विशेष देव ही लगता है।”
सहेली के उत्तर पर एक अन्य सखी बोली, “मुझे तो यह कोई विशेष अथिति ही लगता है तभी महाराज ने इसे यहाँ पर रोका है मुख्य अथिति गृह से दूर और सेवको को भी इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है।”
इस पर एक अन्य सहेली बोली, “हो सकता है देवासुर संग्राम के लिए राज्य से ऊत्तम किस्म के घोड़े लेने आया हो!”
इस पर कैकई बोली, “हाँ हो सकता है क्यों कि युद्ध के समय ही योद्धा बाहर निकलते हैं।”
तभी एक सहेली बोली, “यहाँ पर खड़े होकर इसके बारे में सोच विचार करने से ज्यादा अच्छा है उसी से चलकर पूछ लेते हैं, वैसे भी राजकुमारी को देखकर लग रहा है कि वो इस तेजस्वी पुरुष के तेज से अंदर ही अंदर झुलस रही है।”
सहेली के विनोदपूर्ण व्यंग को सुनकर कैकई बोली, “चल बेशर्म कैसी बातें कर रही है, क्या उस पराए अजनबी पुरुष के पास जाकर उसे बातें करना शोभा करेगा?”
“राजकुमारी यहाँ खड़े होकर प्रेमग्नि में जलने से तो बेहतर ही होगा!”
“चल बेशर्म…!” कहती हुई राजकुमारी कैकई लज्जा से नजरें नीचे कर हँसने लगी
तभी कैकई बोली, “मुझे लगता है यह देवताओं की तरफ से आया कोई देव ही है तभी पिताश्री ने इसे यहाँ पर अपना आतिथ्य दिया है वरना कोई असुर होता तो पिताश्री उसे अपने राज्य से घोड़े खरीदने ही नहीं देते!”
“हाँ यह तो है मगर हो सकता है यहाँ से हथियार खरीदने आया हो?” एक सखी ने कहा
“नहीं पिताश्री ने देवराज इंद्र से संधि की है कि वो कैकई राज्य के उच्च किस्म के घोड़े, बैल, गाय और उच्च तकिनीकी के हथियार असुरों को नहीं देंगे।”
“अच्छा तो फिर यह तो निश्चित हो गया कि यह कोई असुर नहीं बल्कि देवता है है!” पास खड़ी सहेली ने कहा
यह सुन कैकई बहुत खुश हुई और बोली, “मगर इसका नाम क्या है और कहाँ से आया है, जरा इसकी तो जानकारी करो!”
सखी मुस्कुराते हुए बोली, “हाँ हम इसकी सम्पूर्ण जानकारी आप तक और महाराज तक जल्द ही पहुँचा देंगे मगर अभी जरूरी है कि आपके पैरों पर आए प्रेम रंग को जल्द से जल्द साफ करना और आपको आराम करना!”
यह सुन सभी सहेली कैकई के पैरों की तरफ देखने लगी और आस्चर्य से हँसती हुई बोली, “इसका ब्रह्मचर्य तो योगियों से भी बढ़कर है!”
तभी कैकई बोली, “यह समय व्यंग करने का नहीं बल्कि रनवास चलने का है जल्दी चलो उससे पहले कोई और मेरे इन लाल पैरों को देखे!”
इस तरह कैकई और उसकी सहेलियाँ रनवास लौट गई। मगर रावण का चेहरा कैकई की नजरों में ही बना रहा। रनवास पहुंचकर ने स्वयं को अच्छे से साफ किया और जरूरी पेय एवं भोजन लेकर पिताश्री महाराज अस्वपति कैकई के पास उस अथिति के बारे में पूछने चली गई जिसने उसके आराम को हराम कर दिया था। राजा अस्वपति के पास पहुँचकर कैकई बोली, “पिताश्री मधुबन में कौन अथिति ठहरा हुआ है, जिसका देवताओं जैसे सौंदर्य है, ब्राह्मणों जैसा ज्ञान है, क्षत्रिय योद्धाओं जैसा बलिष्ठ शरीर है और गन्दर्भों जैसी उसकी कला है?”
राजकुमारी कैकई के मुख से रावण की प्रशंसा सुन राजा अस्वपति कैकई बोला, “पुत्री तुमने जैसा कहा वह वैसा ही है, मैं भी उसको देखकर उसपर सम्मोहित हूँ, उसमें एक से बढ़कर एक गुण है, मैंने भी अपने अबतक के जीवन में ऐसा पुरुष प्रथम बार देखा है!”
राजा के मुख से उस पुरुष की प्रशंसा सुन कैकई हल्का सा मुस्कुरा गई जिसे देख राजा अस्वपति कैकई उसके अंर्तमन को जान गया और बोला, “मगर पुत्री इतने सारे गुण होने के बाबजूद भी वह महान शिव भक्त देवता नहीं बल्कि देवताओं का शत्रु असुर रावण है!”
अपने पिता के मुख से उसके लिए असुर शब्द सुन कैकई के ऊपर बज्रपात सा हुआ और बोली, “नहीं पिताश्री यह असंभव है?”
“नहीं पुत्री यही सच है, वह एक असुर है मगर उसके पिता श्रेष्ठ ऋषि विश्रवा हैं जिनके पिता ब्रह्मा जी के मानस पुत्र पुलस्त्य हैं!”
“तो फिर वह असुर कैसे हुआ पिताश्री?” कैकई ने पूछा
“क्योंकि उसकी माता दैत्यराज सुमाली की पुत्री है और उसकी परवरिश दैत्यराज सुमाली के संरक्षण में ही हुई है, इसलिए वह असुर है!”
“मगर पूर्णतः तो नहीं पिताश्री!”
“हाँ पूर्णतः नहीं मगर उसने अपने आधे ब्राह्मणत्व को पूर्ण नहीं किया बल्कि अपने असुरत्व से अपने ब्राह्मणत्व को आच्छादित कर लिया है, इसलिए अब वह पूर्णतः असुर है ना कि ब्राह्मण!”
“मगर पिताश्री उसके दादा तो पुलस्त्य ऋषि है जिनके पिताश्री स्वयं ब्रह्मा जी हैं!”
“पुत्री असुर और देवताओं में केवल वैचारिक भिन्नता है जबकि दोनों ऋषि कश्यप की ही संतान है!” राजा अस्वपति कैकई ने कहा
“तो फिर भिन्नता कहाँ हुई पिताश्री?”
“पुत्री इंसान शरीर से संचालित नहीं होता बल्कि विचारों से होता है और विचार ही देवता और असुर बनाते हैं, और रावण उन्हीं विचारों का संरक्षक है जिनसे असुर संचालित होते हैं!”
यह सुनकर राजकुमारी कैकई का हृदय टूट कर बिखर गया कि जिसके लिए हृदय की खिड़कियाँ खोली वह हृदय से देवता नही बल्कि असुर है। यह सुनकर राजकुमारी कैकई अपने रनवास में चली गई और आराम करने लगी।
दो तीन दिन रनवास में रहने के बाद कैकई अपनी सहेलियों के साथ घोड़ों के बाजार गई जहाँ पर उच्च किस्म के घोडों का व्यापार हो रहा था।
जिससे राजा कैकेय ना चाहते हुए भी उसे अपने राज्य के घोड़े खरीदने से नहीं रोक सका।