दोहा पंचक. . . . दौर
दोहा पंचक. . . . दौर
कब रुकती है लालसा, दौड़े धन की ओर ।
जीवन में थमता नहीं, इच्छाओं का शोर ।।
यह जीवन कुछ और है, हम समझे कुछ और ।
बेशर्मी का आजकल, खूब चला यह दौर ।
बेलिबास अब जिंदगी, रास करे दिन रात ।
सार्वजनिक अब दे रहे, मर्यादा को मात ।।
मर्यादा छलनी हुई, कोई करे न गौर ।
छाया है अब हर तरफ, न्यून वस्त्र का दौर ।।
वर्तमान के दौर में, लाज हुई निर्भीक ।
स्वछंदता से मिट गई, मर्यादा की लीक ।
सुशील सरना /1-3-25