“तुम्हारी याद का कफ़न”
“तुम्हारी याद का कफ़न”
उस गली से अब मैं नहीं गुज़रता,
जहाँ कभी तुम्हारी हँसी की परछाई मिलती थी,
अब वहाँ बस ख़ामोशी बिछी रहती है,
जैसे कोई इंतज़ार में मर चुका हो।
वो बेंच भी अब सूनी रहती है,
जहाँ हम घंटों बैठे रहते थे,
हवा भी अब वहाँ ठहर जाती है,
शायद उसे भी हमारा वक़्त याद है।
मैंने तुम्हें भुलाने की लाख कोशिशें कीं,
तस्वीरें जला दीं, ख़त बहा दिए,
पर यादें…
यादें तो राख के नीचे दबी चिंगारी हैं,
जो हर रात जल उठती हैं।
मैं अब भी तुम्हें लिखता हूँ,
पर अब मेरी कविताएँ तुम तक नहीं पहुँचती,
बस पन्नों में दफ़न हो जाती हैं,
जैसे तुम्हारी याद का कफ़न ओढ़े बैठी हों।