ग़ज़ल…04
गवाही दूँ खुले मन से यही आदत निखारी है
करूँ मैं झूठ से तौबा तभी क़ीमत हमारी है//1
कभी मैं नींद में बातें नहीं करता ज़रा सुनिए
तसव्वुर हर खिली बगिया बना हमने सँवारी है//2
किसी के दर्द को अपना समझ करता निवारण हूँ
इसी इंसानियत की दिल लिए चलता ख़ुमारी है//3
हज़ारों ख़ीज़ हों चाहें मुहब्बत इक रहे दिल में
यही नीयत तुम्हारी तो यही नीयत हमारी है//4
भुलाना था भुला बैठे खिलाना था खिला बैठे
तभी हर दर्द में हमने ख़ुशी हरपल बुहारी है//5
कपट के जाल से बचना कुँवारे हाल से बचना
सभी ख़ातिर हिदायत ये रखी दिल में पुकारी है//6
कहे अपनी नहीं सुनता किसी की जो यहाँ ‘प्रीतम’
पतन की राह में उसका सफ़र समझो कि जारी है//7
आर.एस. ‘प्रीतम’