महाकुंभ…आदि से अंत तक

दो दिन का मेला है
फिर सब उठ जाना है
एक एक कर कुंभ से
सब ने लौट जाना है
लौट जाएँगे साधु संत बाबा
किन्नर अखाड़ा अघोरी नागा
ढोल नगाड़े शंख पताका
झाल मंजीरा कीर्तन जापा
आरती दीप धूप चंदन
घाट घाट मंत्रों का गुंजन
वेदी समिधा यज्ञ हवन
रुद्राक्ष भभूत भगवा वसन
चिलम कश और कल्पवास
दानव देवता निज आवास
ग्रह नक्षत्र राशि मास
वे भी लौटेंगे धुरी पास
लौटेंगे पूर्वज निज संसारा
तोड़ पुनर्जन्म का कारा
थके पाँव झुके कंधे पिटारा
लौटेगा हुजूम सारा का सारा
सभी लौटेंगे एक गंगा के सिवाय
वो आगे बढ़ जाएगी छोड़ सारे कषाय
एक सदी से दूसरी सतत प्रवाहमान
परंपराओं का भार लिए आगे प्रस्थान
पर लौटती है गंगा भी बोतल में बंद
बन उम्मीद की अमिय बूँदें चंद
मृत्यु के सच को झुठलाती
अमरत्व की चाह ललचाती
है डाली जाती वही बूंदे चार
जब होती बिदाई चार काँधे सवार
बस रुकी रहेगी रेती वहीं पर
श्रांत क्लांत उद्भ्रांत भू पर
बींधी असंख्य पदचिन्हों से
जो खोजते अमृत सदियों से
पग पग धसी प्रार्थनाएँ हैं
धूल धूसरित आत्माएं हैं
दबी हुई रेती के नीचे
आस लगाये आँखे मीचे
कि एक दिन गंगा की लहर
आएगी मिलने रेती के घर
पहुँचा देगी परित्यक्त सारे
लहर लहर दिनकर के द्वारे
रेखांकन।रेखा