कविता
सोचने की शक्ति हो गई क्षीण,
मैं शब्दों से हो गई दीन,
लिखनी है कविता गिन रही हूँ दिन,
विवस असहाय सपेरे की टूट गई बीन,
हुआ हास्यास्पद मेरे जैसे कवि के सिन,
अनायास मेरे अंदर छुपा अन्धकार कुंठा भाव फूटा,
धैर्य का हर बांध टूटा,
संचित शब्द आखिर किसने है लुटा,
शब्द के अथाह सागर का साथ है छुटा,
बन बछड़े सदृश बंध गए एक खुट्टा,
मन उड़ान में थी कभी कविता सहेली,
रह गई रेगिस्तान रज की सहेली,
विशाल आकाश विशाल धरा में मैं अकेली,
लिखूँ क्या मानो कविता बन गई पहेली।
उमा झा