हम सब

शीर्षक – हम सब
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सच तो मन भावों में हम सब के रिश्ते हैं।
आंखों में सपने टूट कर आंसू बने जातें हैं।
जमाने और अपनों का दिल पत्थर रहता हैं।
जिंदगी तो उससे पूछें जिसका खोया जिगर हैं।
हां धूप तो मन की दीवार पर अब न आती हैं।
हम सब न तुम अजनबी से अब सब लगते हैं।
न हम सब को एतबार एहसास तेरे होते हैं।
सात फेरों में भी हम सब जिंदगी तो जीते हैं।
सच और सोच में भी फरेब न जाने कितने होते हैं।
हम सभी एक दूसरे के किरदार बन गए हैं।
न जाने हम सब कब एक दूसरे से पराए बने हैं।
रिश्ते नाते हम सब में कौन अब समझता है।
हम सब ही तो बस अकेले ही चलते रहते हैं।
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नीरज कुमार अग्रवाल चंदौसी उ.प्र