मानवीय मूल्य
शहर अब विकसित हो गए हैं।
झाड़ पेड़ सब हवा हो गए हैं।।
कलरव पक्षियों के बन्द हुआ अब,
हवाओं में भी जहर घुल गए हैं।
शीतल बयार नही बहती अब,
महल सारे कंक्रीट के बन गए हैं।
गौरैया ने भी मुंह फेरा है अब,
मिजाज मौसम के बदल गए हैं।
पर्यावरण अनुकूल सड़के नहीं अब,
गौरव पथ तक सीमेंट के हो गए हैं।
पलाश गुलमोहर विलुप्त हुए अब,
क्रोटन और बेल बूूट हमें भा गए हैं।
पारे की विभीषिका हुई ज्वलंत अब,
गर्म उत्सर्जन बेहिसाब बढ़ गए हैं।
भूस्खलन आम बात हो चली अब,
आलम बरबादी के बढ़ गए हैं।
बाढ़ की विभीषिका मत पूछो अब,
मृदा अपरदन के दौर बढ़ गए हैं।
मिलना जुलना बंद हो चला अब,
व्हाट्सएप सदृष्य रोग बढ़ गए हैं।
बातचीत भी बंद सी हो चली अब,
संबंध मोबाइल की भेंट चढ़ गए हैं।
नहीं रहा त्यौहारों पर जमघट अब,
रिश्ते सभी स्वार्थ परक हो गए हैं।
मैदान घर आंगन सूने सूने अब,
बच्चे सभी जबसे हाईटेक हो गए हैं।
बुजुर्ग परिवार की धुरी नहीं रहे अब,
वृद्धाश्रम सभी गुलजार हो गए हैं।
इस विकास में इंसानियत नही अब,
मानवीय मूल्य सब खाक हो गए हैं।
इति
इंजी. संजय श्रीवास्तव
बालाघाट मध्यप्रदेश