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10 Dec 2024 · 1 min read

दोहा पंचक. . . . यथार्थ

दोहा पंचक. . . . यथार्थ

मन मंथन करता रहा, पाया नहीं जवाब ।
दाता तूने सृष्टि की, कैसी लिखी किताब।।

आदि-अन्त की जगत पर, सुख-दुख करते रास ।
मिटने तक मिटती नहीं, भौतिक सुख की प्यास ।।

जीवन जल का बुलबुला, पल भर में मिट जाय ।
इससे बचने का नहीं, मिलता कभी उपाय ।।

साँसों के अस्तित्व का, सुलझा नहीं सवाल ।
दस्तक दे आता नहीं, क्रूर नियति का काल ।।

चाहे जितने भी करो, जीवन रूप प्रपंच ।
निश्चित तुमको छोड़ना, होगा जग का मंच ।

सुशील सरना / 10-12-24

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