एक पत्थर से दिल लगा बैठे

एक पत्थर से दिल लगा बैठे
जिंदगी का सुकूं गंवा बैठे
आस अपनों से जब लगा बैठे
हम चरागों को खुद बुझा बैठे
किसका पैगाम ले के आए हैं
फिर कबूतर छतों पे आ बैठे
क़हर उन पर ज़रूर बरसेगा
मुफलिसों का जो हक़ दबा बैठे
दौलतों को समझ लिया सब कुछ
खुद को दलदल में क्यों फंसा बैठे
एक छोटी सी ज़िंदगी के लिए
कितना सामान हम जुटा बैठे
आप हैरान क्यों हुए इतना
वो अगर अपना घर बसा बैठे
क्यों समझने में देर की उसको
अब तो खुशिया सभी गंवा बैठे
इश्क़ है इक ख़ता अगर ‘अरशद’
करके हम भी यही ख़ता बैठे