नसीब को मैंने उस दिन से मानना छोड़ दिया था

नसीब को मैंने उस दिन से मानना छोड़ दिया था
जिस दिन से उसने मेरा साथ देना छोड़ दिया था।
उलझा दिया था सवालों ने
कि क्या ज़िंदगी एक तुक्का है
जिसे तुक्के में जिया जाए।
भटकना खराब है
तो फिर रुक के कैसे जिया जाए?
अगर तय है सब पहले से
तो फिर नसीब का क्या खेल था?
क्या किसी बात का, आपस में भी
कोई मेल था?
घूम-फिर कर होती
सबके साथ एक ही घटना है,
हिसाब लगाकर देखो
तो सबका एक ही सपना है।
ये चक्रव्यूह है ख्यालों का,
सच में देखो
तो जैसा चुनाव है
वैसी घटना है।