महाकुंभ : संगम स्नान
महाकुंभ : संगम स्नान
अद्भुत आस्था,श्रद्धा की पराकाष्ठा चरम ..छूते लोगों महत्वाकांक्षा और इन सब में पिसते ,..घर बार छोड़
सैलाब समेटते सैनिक
शीत की थपेड़ो में भीथिरकते,
काठ बन चौराहे चौराहेसुलगते,
जब कोई उन्हें अपना पक्ष सुनाते ,
उससे पहले ही ठोक पीट दिए जाते ,
अश्रु ने पीड़ा परखा उनका ,
आजीविका फेर में पटक दिए गए कई प्रांतो से ,
मैने भी विचलित होकर डरते सहमते हुए पूछा था उनसे
आदर से … राह , गालियां सुनके.,सुनसान दहाड़ते थे जो
अदब से बोले जिस तरह तू नवेली इन राहों में मैं भी हूं अनजाना ,
तुम आई हो मन से मां मिलने
और मैं भी मां (भारत माता)का दीवाना…
इस पथ से अंजान भली सी लगती हो ..
पर कैसे जाने कहूं उस ओर
जिस पथ से मै अनजाना,
जाना न बहन.. हो वहां ..कोई
मुर्दों की बस्ती ,शायद श्मशान ही श्मशान ,तनिक व्यथित हो जो मन मत घबराओ ,
प्रण लिया जो तुमने बस उस पर चित लगाओ
मां.. मन की , जानती
उसका कर लो ध्यान ,
इस युग का योग अप्रतिम सो कर ले तू गुणगान
मंजिल मिली किया स्नान
मुग्ध हुई ..मूर्क्षित सपन
धवल गंग नीर ,क्षीर सा वसन आह्लादित अश्रु छलके नयन
ये दृढ़ता ही धर्म है सनातन
✍️अंजू पांडेय अश्रु