दोहे

दोहे
प्रेम समर्पण का विषय, विनिमय है बेकार।
पहल स्वयं से कीजिए, दो तरफा व्यापार।
बढ़ती पूँजीवादिता, थोथा नैतिकवाद।
प्रेम तत्व को मारकर, करते सब बर्बाद।।
झीनी चादर ओढ़कर, मैं जाऊँ उस द्वार।
साजन मुझसे रीझकर, करेंगे एकाकार।।
नैतिकता की चूनरी, कुंठित तुझमें भेद।
मितवा के रँग डूब री, झीने होंगे छेद।।
©दुष्यंत ‘बाबा’