पीत वसन
///पीत वसन///
उड़ चल रे ये पीत दुकूल,
मिली तुझे वाती अनुकूल।
थर थर थर मंथर गति मय,
तेरा यह जगत भूरि उन्मूल।।
लेकर के प्रिय प्राण दशन,
ये अश्रु कणों के हिमकण।
उड़ते अंचल आंचल लेकर,
वह उद्-वारिद के लघुतृण ।।
चुराता है अनजान जलद,
सुखद कणों की प्रिय मदिरा।
उठता यह उर्मिदल दुकूल,
चिर विरहणी प्यासी नीरा।।
वह मुखरित नीरव आवाहन,
उठती यह वीणा की सरगम।
पल-पल नृत जगत पयोनिधि,
लेकर जीवन झंझा अनुपम।।
नभ की अरूणाई आभा में,
जा मिल जा रे तू पीत वसन।
हां जा तू उस पार क्षितिज के,
मुझे लाकर दे दे प्रेम असन।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)