तुम्हें पढ़ने के उपरांत
तुम्हारी कविता की
कुछ सुंदर पंक्तियाँ
ब्रह्ममुहूर्त में
याद आई हैं;
अनायास।
–
यह संकेत है
आगत अच्छा होगा,
अब दिन नहीं,
पखवाड़ा,
पखवाड़ा नहीं, महीना,
महीना नहीं, उत्तरायण,
और शायद समूचा बरस,
बढ़िया बीतने वाला है।
—
वो जो तुम कहते थे न,
ईमानदार इरादों का
उपसंहार शुभ होता है,
नेक नीयत का अंज़ाम
नेक ही नेक होता है
और यह कि
ईश्वर और प्रारब्ध से
कहीं उपर
इंसान की सोच और
उसका कर्म होता है,
मैं अंगीकार किया हूँ।
—
सिद्धाँतवादी जीवन जीने की,
परिणति यह है कि,
मैं कर्मप्रधान बन रहा हूँ
सफलता या असफलता में,
फ़र्क नहीं रखता,
जीवन और मुत्यु में
अंतर नहीं मानता,
मुझे नवजात शिशु
और वृद्ध-आत्मा में
दूरी नहीं दिखती,
मैं प्राणीमात्र से प्रेम करता हूँ
मुझे हरेक चेतना के प्रति
वही संवेदना है
जो अपनी आदम बिरादरी के प्रति।
—
मैं स्वाभिमान से लबालब
अभिमान विहीन
तरल हो चुका हूँ
सरल हो चुका हूँ
तटस्थ हो चुका हूँ
सुखों और दुःखों से
पाने या खोने से
तृष्णा या तुष्टि से,
जीवन या मृत्यु से;
तुम्हारी रचनाएं
पढ़ने, समझने
अंगीकार करने के उपरांत।