एक पथिक राहों पे ?
एक पथिक राहों पे
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उदास क्रूर चेहरा विकराल
सिर बाल नहीं घोंसला था
झुर्री का तनिक परवाह नहीं
नग्न पांव चलता एक पथिक
भरि लोचन बिलोकी भवन निज
ललाट कपाट चिंतामणि की रेखा
आश अरमान बिछुड़ा बेबस
स्वाभिमान से चलता राही था
हे ! पथिक ऐसा हाल क्यों ..?
सुना बढ़ा मुस्करा कर रोया
अश्रु वेवाफाई दिखा रहा था
वक्त की दुहाई देते जा रहा था
धोखा खाया पथ समेटे बढ़ रहा
आशियाने में गुजरा जीवन था
अश्रुधार से आश्रय तालाश में
पथिक त्रिकाल समझ रहा था
समय का फेर समझ मेरे भाय
बोल बोल बढ़ता जा रहा था
निज से ज़ख्मों का दर्द असीम है
दूजे से मिला सत्कार कीमती है
तिमिर निस्तब्ध पथ पर बढ़ता
पथिक बढ़वढ़ाते कह रहा था
जग सूनी निर्मोही संसार हैं प्यारे
धरा धरणी सें बातें कर रहा था
कर्म प्रीत रीत जगत का महान
जैसी करणी वैसी भरणी प्यारे
समझ बूझ चलना हे ! प्यारे
सूनी राहों पे केवल धर्म कर्म
साथ चलता है प्यारे ? ? ? ?
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टी.पी .तरुण