8–🌸और फिर 🌸

कविता -8—–==
🌸—-और फिर —🌸
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शाम की खामोशी ले ये रात आ रही है।
नीँदों की आस में ये शम्मा बुझ रही है–
जलती शमा पर जैसे परवाने मंडरा रहे हैँ।
ढलती रोशनी में अरमान भी बुझ रहे हैँ।
छिटकी हुई चाँदनी ज्यों ज्यों मंद हो रही है
मौन उदासियाँ भी साथ बढ़ रही हैँ ।
ख्वाबों के साये मेरी पलकों पर छा रहे हैँ।
तेरी बिसरी बिसरी यादें नींदें उड़ा रहीं हैँ
जब सामने थे तब इक़रार नहीं किया था
अब तुम नहीं हो तो दिल बेकरार क्यों है..
ये वक़्त हर दम बेमुरवत्त हो रहा है ?
जाने क्यों फिर भी हम समझ नहीं रहे हैं
दूर कर सके न हम जो जो भरम हुये थे ।
होश में आ गए है जब जब करम हुऐ हैँ।
वक्त ऐसे जो करवट बदल रहा था ।
क्या, हो कब हो, कैसे हम न कह सके थे
तुम जब चले गए थे दुनिया बदल गयी थी।
जीना था क्या मेरा मर मर के जी रही थी
उम्मीद की थी मैंने- आने की तेरी जब से,
सूनी थी आँखों मेरी = आँसू बरस रहे तब से।
जब तुम नहीं थे सूनी, हो गयी थी दुनिया
आने की आहट से तेरी,तबियत मचल गयी थी।
आने का तेरे मेरा इंतज़ार ख़त्म ना होगा।
मरते दम तक मेरा इकरार ये रहेगा।
जब तुम जुदा हुए तो सब कुछ बदल गया था
तुम आ गये तो किस्मत करवाट बदल रही है।
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महिमा शुक्ला, इंदौर ( म.प्र. )