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13 Apr 2025 · 5 min read

भारतीय स्वधर्म एवं जीवन-दर्शन

भारत को भारत के रूप में जानना आज की सर्वाधिक बड़ी जरूरत है । इसी में निहित है सनातन भारतीय जीवन-दर्शन, धर्म, अध्यात्म, योग, योग-साधना, विज्ञान, चिकित्सा, खेती, शिक्षा एवं अन्यान्य का वर्तमान व भविष्य । भारत को पश्चिमी, मध्य एशिया या ग्रीक दृष्टिकोण से देखना पूर्ण को अंश के माध्यम से देखना होगा। भारत को इनके माध्यम से देखना विकारों के माध्यम से स्वच्छता को देखना होगा। भारत की इनके माध्यम से पहचान निश्चित करना अपूर्ण से पूर्ण की पहचान करना होगा। भारत को इनके माध्यम से जानना व समझना निरी मूर्खता एवं मूढ़ता का कुकृत्य है। लेकिन विडंबना यह है कि यह कुकृत्य पिछले 250 वर्षों से चल रहा है। अंग्रेजों को भारत को इस तरह से देखना या मुसलमानों का भारत को इससे जानना उनकी मजबूरी या उनका स्वार्थ या उनकी हीन भावना रही होगी परंतु हम भारतीय अपने भारत को इस विकृत ढंग से जानें यह हमारे लिए किसी भी तरह से शोभनीय नहीं है। मुसलमान व अंग्रेज जो भेदभावपूर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त एवं विकृत व्यवस्था भारत में छोड़कर गए थे उसी का हम भारतीयों ने मुसलमानों व अंग्रेजों से भी अधिक सनकीपन व हीन भावना से ग्रस्त होकर अनुकरण करना शुरू कर दिया । आजादी देने व लेने की वेला के समय शायद गांधी जी ठीक ही कहीं एकांत में अपने द्वारा किए गए संघर्ष, संघर्ष के तरीकों, आजादी के रूप, साधन, सत्ता के हस्तांतरित होने के पश्चात् की भयावह स्थिति आदि पर विचार करने हेतु बैठे हुए थे । भारत में भी ऐसी अनेक घटनाएं घटित हुई हैं जिनकी वास्तविकता कुछ है लेकिन हम उनको जानते किसी अन्य रूप में ही हैं। निहित स्वार्थी तत्त्वों ने अनेक घटनाओं व तथ्यों को (दार्शनिक, धार्मिक, नैतिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक व शैक्षिक) अब तक छुपाए रखा है । इनसे जब-जब पर्दा उठाने का प्रयास किया जाता है ये निहित स्वार्थी तत्त्व हो-हटला करने लगते हैं ।
भारत का स्वधर्म क्या है, भारत का दर्शनशास्त्र क्या है, भारत के नैतिक मूल्य कौन से हैं, भारत की समृद्ध राजनीतिक प्रणाली क्या है, भारत का संतुलित विज्ञान क्या है, भारत की समृद्ध वैज्ञानिक शिक्षा-प्रणाली क्या है, भारत की चिकित्सा के वैज्ञानिक सूत्र कौन से हैं, भारत का वसुधैव कुटुंबकम क्या है, भारत की बहुआयामी संस्कृति को कैसे अंधेरे में ढकेलने का कार्य किया जा रहा है, भारत के संस्कारों को कैसे जड़बुद्धि व रूढ़िवादी सिद्ध करने का षड्यंत्र चल रहा है, भारत को कैसे इंडिया बनाने की सबको जल्दी है, भारत की न्याय-व्यवस्था को कैसे अंग्रेजी सोच को गिरवी रख दिया गया है, भारतीयों के आचरण में कैसे विदेशी अवैज्ञानिक विचार घर बना रहे हैं- आदि-आदि सभी प्रश्नों पर विचार करके उनको भारतीयों के जीवन में गहरे से उतारने की जरूरत है ताकि वे जान व समझ सकें कि हमारा कल्याण अपने स्वयं से ही होगा। ऐसे ही विदेशी सोच के गुलाम कुछ भारतीयों के षड्यंत्र स्वरूप गांधी को राष्ट्र की आजादी के वक्त ही दूध में मक्खी समझकर दूर फेंक दिया गया था। राष्ट्र अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हो चुका था। इसी को इन निहित स्वार्थी तत्त्वों ने अपने लिए उचित अवसर समझा और राष्ट्र को एक अन्य गुलामी में धकेल दिया । भाषा, जीवनशैली, आचरण, न्याय-व्यवस्था, शिक्षा-व्यवस्था, आर्थिक प्रणाली, राजनीतिक सोच, संविधान निर्माण आदि सभी क्षेत्रों में हमें गुलाम बनाकर रखा गया है अब तक। खिलजी, अकबर, गजनवी, औरंगजेब, शाहजहां, चंगेज, नादिर, कार्नवालिस, मैकाले, मांउटबैटन आदि अब भी हमारे शरीर व मनों में घुसकर अट्ठास कर रहे हैं तथा भारत, भारती व भारतीयता का मजाक उड़ा रहे हैं। किस प्रकार की स्वाधीनता हमें मिली है? होंगे कुछ लोग स्वाधीन लेकिन भारत तो अब भी गुलाम है। पूरे भारत में सार्वजनिक स्थलों पर लाखों की संख्या में लगी हुई गांधी की मूर्तियां हम भारतीयों से यही प्रश्न पूछ रही हैं लेकिन हममें से कोई उनकी आवाज को सुनता ही नहीं है। सुनो सावरकर को, सुनो सुभाष को, सुनो अरविंद को, सुनो चंद्रशेखर आजाद को, सुनो गांधी को । इन सब में से यदि किसी को इनकी आवाज सुनने को मिल जाए तो गांधी जी की आवाज सर्वाधिक मर्मांतक मिलेगी क्योंकि गांधी जी ने जिन सपनों को बुना था उनके समीप वालों ने ही उनको धोखे से दूर फेंक दिया। हमने पिछली कई सदियों से अपनी प्रतिभा को पहचानने से इन्कार कर दिया है । हमारे ठेठ गांवों के निवासियों की प्रतिभा भी इंग्लैंड, अमरीका, जापान, इटली या जर्मनी के लोगों से उन्नीस नहीं अपितु इक्कीस ही ठहरती है । लेकिन हमारी स्वयं के लोगों की प्रतिभा की उपेक्षा करे पश्चिम के पिछलग्गूपन की प्रवृत्ति के कारण हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं । स्वावलंबी बनने की बजाय हम परावलंबी बनते जा रहे हैं । बिना किसी पूंजी व अन्य बाहरी सहयोग के खेतीबाड़ी करके हमारे किसानों ने देश के गोदामों को पाटकर रख दिया है । यह उनकी मेहनत, प्रतिभा व आपत्तियों का सामना करने की संकल्पशक्ति के कारण ही संभव हो सका है । हम कोरी स्लेट नहीं हैं कि जिस पर सब कुछ नया ही लिखा जाना है अपितु हम एक समृद्ध व अनुभवी राष्ट्र हैं जिसके पास अपना एक समृद्ध, विकसित, वैज्ञानिक एवं जमीन से जुड़ा हुआ तंत्र है । हमारे अतीत के बारे में एक मोटी धारणा बनी हुई है कि हमारे ग्रामीण कोई हजार या उससे ऊपर सालों से बेहद गरीबी में जी रहे हैं । उनके शासकों और उनके सामाजिक व धार्मिक रीति-रिवाजों के द्वारा उनका भयानक शोषण हुआ है और उन्हें अत्यंत पीड़ाजनक स्थितियों में रखा जाता रहा है । इन परिस्थितियों ने उन्हें कुंठित रखा है । वे या तो दिग्भ्रमित रहते हैं या अंधविश्वासों व पूर्वाग्रहों के शिकार । इन मान्यताओं के आधार पर हमने यह नतीजा निकाल लिया कि हमें यानि कि नए भारत के निर्माताओं को कोरी स्लेट पर अपनी इबारत लिखनी है और इसीलिए उन पर जैसा चाहे वैसा विचार और व्यवस्था की छाप लगा सकते हैं । हमने यह सोचने की जरूरत नहीं समझी कि इन लोगों की अपनी कोई स्मृति है, अपने विचार हैं, प्राथमिकताएं हैं, अभिरूचियां हैं । जब ऐसा सोचा भी गया तो उसे महत्त्वहीन मानकर दरकिनार कर दिया गया ।
हमें अपने अतीत से तोड़ दिया गया है। हम सब महत्त्वपूर्ण आधुनिक काल को मानने लगे हैं । हमारे चित्तों को एक षड्यंत्र के तहत इतना प्रदुषित कर दिया गया है कि हम अपने घर को ही गालियां देने लगे तथा कुत्सित विदेशी हमें स्वर्णिम लगने लगा है। हम पश्चिमी देशों या अरब देशो की तरह क्रूर, हमलावर व आततायी न होकर सहिष्णु, नरम एवं करूणावान हैं । हम अभाव में किसी अन्य पर हमला करके उसके अधिकारों का अतिक्रमण नहीं करते; जिस तरह से पिछले 1300 वर्ष से इस्लामी, अफगानी व अंग्रेज हमलावर भारत के साथ करते रहे हैं । आज भी प्रतिदिन होने वाली आतंकवाद की घटनाएं इसी की ओर संकेत करती हैं। अपने स्वयं को बदलने के बजाय दूसरों को ही बंदूक के आतंक के जरिए बदलने का आतंकी कुकर्म दो विशेष संप्रदायों के लोग कर रहे हैं । हम भूखे-प्यासे होकर भी किसी को कुछ नहीं कहते हैं तो शायद इसको हमारी कमजोरी, काहिलपना या कायरपना मान लिया जाता है या मान लिया गया है । दुर्घटना तो तब घटित हुई जब इसे ही भारत का मूल दर्शन मान लिया गया । किसी भी हालत में किसी पर हिंसा न करो, इस उपदेश को भारत का राष्ट्रीय उपदेश मानकर हमने अपने राष्ट्र को सर्वाधिक बड़े संकट में डाल लिया है। हम अन्य देशों पर हमला न करें लेकिन अपनी सुरक्षा भी न करें यह कहां की समझदारी हैं? हमारा स्वधर्म यह कहता है कि हम इसके लिए कुछ भी करें लेकिन इसकी रक्षा अवश्य करें ।

डॉ. सुरेश कुमार
राजकीय महाविद्यालय सांपला
रोहतक (हरियाणा)

Language: Hindi
22 Views
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