राजनीतिक गलियारा
शोर से संसद की छत क्यों थरथराती है
क्यों मुखर उदंडता सच को दबाती है
गिन-गिन के लगा रहे हैं सब दाँव पैतरे
क्यों दुष्टता शालीनता को आँख दिखाती है
आलोचना तो* अच्छी नहीं लगती किसी को
ये चाटुकारिता सभी को क्यों सुहाती है
डर के विपत्तियों से न घबराना चाहिए
जब रात बीतती है भोर गुनगुनाती है
औरों को प्यार दोगे तभी प्यार मिलेगा
सदियों से प्यार की ये* रीति चली आती है
ये छोड़के देखो तो लाभ – हानि का गणित
ये जिन्दगी ऐसे ही* नहीं मुस्कुराती है
डा. सुनीता सिंह ‘सुधा’
वाराणसी
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