काश यह रिवाज हमारे यहाँ भी होता,
मैंने इस खबर को एक कविता में इस तरह रूपांतरित किया है
काश यह रिवाज हमारे यहाँ भी होता,
बेटों-बेटियों की शादी का बोझ न होता।
न माँ-बाप के चेहरों पर शिकन दिखती,
हर ख़ुशहाली एक झोली में समाती।
काश यह रिवाज हमारे यहाँ भी होता,
क़र्ज़ चुकाने की तनाव न होती,
हर चेहरे पर रौनक़ की चमक होती,
हर घर में खुशियाँ महकती।
काश यह रिवाज हमारे यहाँ भी होता,
हर परिवार तरक़ी-याफ़्ता होता,
ज़िंदगी के हर पल में ख़ुशियाँ होतीं,
हर सपना अपने रंगों से सजाता।
काश यह रिवाज हमारे यहाँ भी होता,
एक नया सवेरा और नई सोच होती,
हर इंसान बेखौफ और आज़ाद परिंदा होता,
काश यह रिवाज हमारे यहाँ भी होता।
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धन्यवाद
शकिल आलम- छात्र, पत्रकारिता एवं जनसंचार, विभाग MANUU