एक नज़्म :- ईर्ष्या की आग
एक नज़्म :- ईर्ष्या की आग
गैरों से अदा अपनो से जलन, होती क्यों है,
ईर्ष्या की आग में ये दिल, सुलगता क्यों है..
बन जाती है शबनम भी, संग जलकर शोला,
तन जिंदा पर,जिस्म से रूह बिछड़ती क्यों है..
माना कि सादगी का दौर,
नहीं है अब जीवन,
पर गैरों की आबो-ताब में ही,
ये मन मचलता क्यों है..
कैद है क़फ़स में ,
मर्यादाओं का ताना बाना,
पर अल्फ़ाज़ों में भी,
बेपरवाही दिखती क्यों है..
थमेगा कब तलक ये मंजर,
उजड़ते बियाबानों का,
फेंक दी गयी है बैशाखियां,
पर खामोशी खलती क्यों है..
कुछ खास लोग थे ज़िन्दगी में,
जिसे अपना माना,
अब जज्बातों को खुद से छिपाते,
अश्रु निकलता क्यों है..
मौलिक और स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – २०/१२/२०२४ ,
पौष, कृष्ण पक्ष,पंचमी ,शुक्रवार
विक्रम संवत २०८१
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