ग़ज़ल
बहुत देखे बहुत जाने पराए और अपने भी
सभी से ख़ूबसूरत थे क़सम से यार सपने भी//1
सहारों के भरोसे तू कभी मत तैरना सुनले
किनारे पर डुबाते हैं क़रीबी दोस्त जितने भी//2
क़मीनापन दिलों का ये नहीं दिखता अमीरी में
ग़रीबी और ग़र्दिश में सभी आते हैं छलने भी//3
समझ मदिरा मुहब्बत है चुरा इज़्ज़त कभी लेगी
गई इज़्ज़त अगर फिर तो जमेंगे लोग तलने भी//4
छिपाता हूँ सभी से मैं खुदी से पर नहीं छिपता
हक़ीक़त आ गई है अब मिरे ही साथ जलने भी//5
हवाओं से फ़िज़ाओं से अदाओं से बचूँ कैसे
डुबाने भी बचाने भी खड़े हैं यार मिलने भी//6
चुराने दिल सजाने पल बहाने मिल मुहब्बत में
मिलेंगे हम अरे ‘प्रीतम’ तुझी में यार ढ़लने भी//7
आर. एस. ‘प्रीतम’
सर्वाधिकार सुरक्षित ग़ज़ल