क्रोध
मन में बसी सद्भावना को ,
प्रेम भक्ति चेतना को।
नष्ट करता क्षण में जो है,
कुछ अन्य नहीं वह क्रोध है।।
चन्द्र जैसे प्यारे तन को,
धैर्य शाली शान्त मन को।
उग्र करता क्षण में जो है,
कुछ अन्य नहीं वह क्रोध है।।
है शून्य करता मित्रता को,
क्षण में गढ़ता शत्रुता को।
निष्ठुर बनाता नर को जो है,
कुछ अन्य नहीं वह क्रोध है।।
यदि साथ उसके सत्यता हो ,
बसी उर में पवित्रता हो।
फिर बनता साथी मन का जो है,
कुछ अन्य नहीं वह क्रोध है।।
अस्थिर जो करता मन को है,
निर्मोही करता जन को है।
फिर खुशी हरता क्षण में जो है,
कुछ अन्य नहीं वह क्रोध है।।
यदि ढंग उसका सही हो तो,
गर्व का रंग ना मिला तो।
फिर शस्त्र जैसा बनता जो है,
कुछ अन्य नहीं वह क्रोध है।।
दुर्गेश भट्ट